विजय गर्ग
जिस दौर में विज्ञान रोज नई ऊंचाइयां छू रहा है, नई तकनीकी समाज के हाशिये के तबकों तक पहुंचाई जा रही है, वैसे में महज कल्पना या अंधविश्वासों की वजह से किसी को बर्बरता से पीट-पीट कर मार डालने की घटनाएं विकास के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगाती हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के एक गांव में रविवार को तीन महिलाओं सहित पांच आदिवासियों की इसलिए पीट-पीट कर हत्या कर दी गई कि उन पर लोगों को यह शक था कि वे जादू-टोना करके दूसरों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसी तरह, कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के हरिसारा गांव में दो आदिवासी महिलाओं को जादू-टोना करने के संदेह में स्थानीय लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला। महज गलत धारणाओं की वजह से हुई हत्या की इन घटनाओं के बाद पुलिस ने कुछ स्थानीय लोगों को हिरासत में लिया, लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ कुछ गिरफ्तारियों से ऐसी घटनाएं रोकी जा सकती हैं…? अंधविश्वास की परतें
इस तरह की घटनाओं के वक्त ऐसा करने वालों के भीतर कहीं भी कानून का खौफ दिखाई नहीं देता है । मगर जब ऐसा कोई मामला तूल पकड़ लेता है, तो पुलिस कानूनी कार्रवाई की औपचारिकता पूरी करती दिखती है। यह छिपा नहीं है कि आज भी बहु सारे लोग कई तरह के अंधविश्वासों का शिकार होकर जादू- टोना जैसी झूठी आशंकाओं के प्रभाव में आकर आपराधिक वारदात को भी अंजाम देते हैं। विडंबना है कि ऐसी धारणाओं के शिकार कई बार पढ़े-लिखे कहे जाने वाले या शहरी लोग भी होते हैं । संविधान में जहां वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के प्रावधान मौजूद हैं,
वहां इस दिशा में सरकार की ओर से बहुत कम ठोस प्रयास देखे जाते हैं। खासकर वैसे तबकों के बीच शिक्षा के साथ वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की जरूरत है, जो किसी भी अभाव, परेशानी, बीमारी आदि की स्थिति में किसी अन्य व्यक्ति पर जादू-टोना करने का शक करते और तांत्रिकों के उकसावे में आकर उन्हें मार डालने से भी नहीं हिचकते । शायद बाद में कानूनी कार्रवाई का सामना करते हुए उन्हें अपने किए पर पछतावा होता हो। अंधविश्वास की परतें