क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?

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क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?
क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?

श्याम कुमार

रैगिंग का इतिहास बहुत पुराना है तथा विश्वव्यापी है। पहले यह ‘इन्ट्रोडक्शन नाइट’ के रूप में मशहूर थी। उस समय ‘इन्ट्रोडक्शन नाइट’ का हिन्दी में नामकरण ‘परिचय-निशा’ हुआ था। उच्च कक्षाओं वाली शिक्षण-संस्थाओं में, विशेष रूप से इंजीनियरिंग एवं मेडिकल काॅलेजों में ‘रैगिंग’ का रिवाज बहुत अधिक था। उनकी देखादेखी अन्य छोटी-बड़ी शिक्षण-संस्थाओं में भी ऐसा होने लगा। ‘रैगिंग’ का प्रचलन छात्रावासों में विशेष रूप से था। केवल लड़कों के छात्रावासों में ही नहीं, लड़कियों के छात्रावासों में भी खूब ‘रैगिंग’ होती थी। रात्रि-भोजन के उपरान्त वरिष्ठ विद्यार्थी किसी हाॅल या कमरे में एकत्र होते थे, जहां नए विद्यार्थियों को छोटे या बड़े जत्थे में बुलाकर ‘रैगिंग’ के रूप में परिचय लिया जाता था। क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?

पिछले कुछ वर्षों में ‘रैगिंग’ की परिपाटी बुरी तरह बदनाम हो गई है। इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार वरिष्ठ विद्यार्थी हैं। उन्होंने ‘रैगिंग’ का रूप इतना विकृत कर दिया है कि उसमें हिंसा का समावेश हो गया है। मारना-पीटना, करेन्ट लगाना, सिगरेट व शराब पीने के लिए विवश करना आदि ऐसी घटनाएं होने लगीं, जिनमें नए विद्यार्थियों के प्राण तक जाने लगे। पिछले कुछ दशकों में जबसे शिक्षण-संस्थाओं के छात्रसंघों का रूप वीभत्स हुआ और उनकी छत्रछाया में गुण्डे पनपने लगे, तब से ऐसी स्थिति हुई। उन गुण्डों के आगे अन्य वरिष्ठ विद्यार्थियों को भी चुप रहना पड़ता था।

पहले ‘रैगिंग’ की परिपाटी बहुत आवश्यक मानी जाती थी। इससे नए विद्यार्थियों में अनुशासन विकसित होता था। तमाम बड़े घरों के बच्चे बड़े लाड़-प्यार से पाले जाते हैं, जिससे उनमें जिद्दीपन व अनुशासनहीनता भर जाती है। परिणामस्वरूप वे वरिष्ठों को सम्मान नहीं देते। बहुत साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री चन्द्रभानु गुप्त का भतीजा पढ़ने आया था और उसे हीरक जयन्ती छात्रावास (डायमन्ड जुबली हाॅस्टल) में कमरा आवंटित हुआ था। नए विद्यार्थी एक कमरे में दो या तीन की संख्या में रहते थे। चूंकि वह मुख्यमन्त्री का भतीजा था, इसलिए बड़े रोब व नक्शेबाजी में रहा करता था। छात्रावास या विश्वविद्यालय की कैण्टीन में जब वह बैठता था तो मेज पर दोनों पैर फैला लेता था। गोद में ट्रांजिस्टर रखकर जोर-जोर से गाने सुनता था। उसकी जब जमकर ‘रैगिंग’ हुई, तब वह अनुशासित हुआ।

‘रैगिंग’ में नए विद्यार्थियों को अनुशासित एवं विनम्र रहने का सबक तो दिया ही जाता है, उनमें हीनता या झिझक की जो भावना होती है,उसे भी दूर किया जाता है।

उस समय वरिष्ठ विद्यार्थी नए विद्यार्थियों की ‘रैगिंग’ करते थे तो ‘रैगिंग’ की परिपाटी में यह अनिवार्य था कि वे वरिष्ठ विद्यार्थी नए विद्यार्थियों की हर प्रकार से, विशेष रूप से पढ़ाई में, मदद करें। वे अपनी पुस्तकें एवं पुराने नोट्स नए विद्यार्थियों को दे देते थे, जो उनके बहुत काम आते थे। यदि कोई नया विद्यार्थी पुराने विद्यार्थी के कमरे में जाकर पढ़ाई के बारे में कुछ पूछता था तो वरिष्ठ विद्यार्थी के लिए यह अनिवार्य था कि वह नए विद्यार्थी की मदद करे।

उस परिपाटी में यहां तक नियम था कि न केवल शिक्षण-संस्थाओं की कैन्टीनों में, बल्कि शहर के किसी रेस्तरां में भी, यदि नया विद्यार्थी जाता था और वहां कोई वरिष्ठ विद्यार्थी मौजूद होता था तो बिल का भुगतान वरिष्ठ विद्यार्थी ही करता था।कुछ चतुर नए विद्यार्थी इसका फायदा उठाते थे। वे तके रहते थे कि कोई वरिष्ठ विद्यार्थी किसी कैण्टीन या रेस्तरां में जाए तो पीछे-पीछे वे वहां पहुंच जाते थे और तब बिल का भुगतान वहां मौजूद वरिष्ठ विद्यार्थी या विद्यार्थियों को करना पड़ता था। ऐसी स्थिति में ‘रैगिंग’ से मुसीबत नए विद्यार्थियों से अधिक वरिष्ठ विद्यार्थियों के लिए हुआ करती थी। उन्हें हर समय अपने पास पर्याप्त पैसे रखने होते थे। कभी-कभी कोई मजबूरी होने पर वे नए विद्यार्थियों की आर्थिक मदद भी करते थे। क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?

‘रैगिंग’ के समय विशेष रूप से सामान्य ज्ञान के या अन्य रोचक प्रश्न किए जाते थे। इससे नए विद्यार्थियों में सामान्य ज्ञान प्राप्त करने की रुचि को बढ़ावा मिलता था। नए विद्यार्थियों के भीतर जो विशेष गुण या कलाएं विद्यमान होती थीं, उनका पता ‘रैगिंग’ के जरिए मिलता था। तमाम छिपी प्रतिभाओं की जानकारी होती थी। एक से एक श्रेष्ठ गायक, वादक, डांसर, चित्रकार व अन्य विधाओं के गुणी कलाकार सामने आते थे। चूंकि उन नई प्रतिभाओं की झिझक दूर हो जाती थी, इसलिए वे भविष्य में बहुत नाम कमाते थे।

मुझे हीरक जयंती छात्रावास (डायमंड जुबली हाॅस्टल) की एक घटना याद है। विमल कुमार सुभाष जो बाद में लखनऊ में ‘पायनियर’ अखबार का मुख्य संवाददाता हो गया था, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था तथा हीरक जयंती छात्रावास में रहता था। मैं कभी-कभी उसके पास जाया करता था। एक बार मैं जब वहां पहुंचा था तो वहां पर वरिष्ठ छात्र नए छात्रों की ‘रैगिंग’ कर रहे थे। उस ‘रैगिंग’ में एक लड़के की गायन- कला का पता लगा था। उसका गला बहुत अच्छा था। उक्त छात्रावास में जन्माष्टमी का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। उस लड़के ने उक्त अवसर पर ‘बड़ी देर भई नंदलाला’ व अन्य भजन गाए थे, जिससे उसके गायन की धूम मच गई थी।

शिक्षण-संस्थाओं में ‘रैगिंग’ रोकने के जो उपाय वर्तमान समय में किए जा रहे हैं, वे बहुत गलत हैं तथा उससे नए व पुराने विद्यार्थियों के बीच वैमनस्य एवं अनुशासनहीनता बढ़ती है। इसके बजाय सौहार्द पैदा करने के उपाय किए जाने चाहिए। शिक्षकों को अपनी मौजूदगी में नए छात्रों की ‘रैगिंग’ की व्यवस्था करानी चाहिए। यह भी किया जा सकता है कि चार-पांच वरिष्ठ छात्रों की समिति बनाकर उन्हें ‘आदर्श रैगिंग’ कराने का जिम्मा सौंप दिया जाय। शिक्षण-संस्था में प्रवेश लेने के बाद ‘रैगिंग’ के महीनों वाली अवधि समाप्त होने पर पहले शानदार ‘फ्रेशर्स फंक्शन’ होता था। उसे भव्य रूप में फिर शुरू किया जाना चाहिए।

‘रैगिंग’ में रोचकता भी अवश्य रहनी चाहिए। दशकों पूर्व स्वराज बोस,जो अब अत्यंत वरिष्ठ अभियंता के रूप में अवकाश ग्रहण कर चुका है,प्रयागराज में मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग काॅलेज के छात्रावास में विद्यार्थी था। एक दिन मैं उससे मिलने मालवीय छात्रावास में पहुंचा तो वहां कुछ छात्र जोकर बने हुए हर कमरे में जाकर कटोरे में भिक्षा मांग रहे थे। पता लगा कि ये नए छात्र हैं, जिनकी इस रूप में ‘रैगिंग’ हो रही है। वर्षों बाद जब वे पूर्व- विद्यार्थीगण आपस में मिलते हैं तो ऐसी रोचक घटनाओं को याद कर ठहाके लगाते हैं। क्या ‘रैगिंग’ बुरी परिपाटी है..?