हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती

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हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती
हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती
हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने मुस्लिम संख्या वृद्धि के तथ्य उद्घाटित किए हैं। सलाहकार परिषद स्वतंत्र निकाय है। यह समय-समय पर तथ्य व आंकड़ों के आधार पर भिन्न-भिन्न विषयों पर परामर्श देती है। परिषद ने दुनिया के 167 देशों के जनसांख्यकीय चरित्र का अध्ययन किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के किसी भी देश में बहुसंख्यक आबादी की बढ़त नहीं दिखाई पड़ी है लेकिन कई देशों में अल्पसंख्यक आबादी की बढ़त पाई गई है। भारत में मुस्लिम आबादी की संख्या बढ़ी है। मुस्लिम संख्या वृद्धि के ताजा आंकड़ों को लेकर देश में खासी बहस चल रही है। हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती

भारत में हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती रहा है। गांधी जी ने हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व के लिए आजीवन काम किया और अंत में कहा कि इस प्रश्न पर मेरी हार हुई। मुस्लिम राजनीति अन्य पंथों पर आक्रामक रही है। मुस्लिम साम्प्रदायिकता के कारण ही भारत का विभाजन हुआ था। गांधी जी ने मोहम्मद अली जिन्ना से पाकिस्तान की मांग न करने और साथ-साथ रहने का आग्रह किया था। इस सम्बंध में उन्होंने जिन्ना को (15 सितंबर 1944) पत्र लिखा था। उन्होंने जिन्ना से पूछा था कि, ‘‘मजहब के अलावा हिन्दू और मुसलमान में क्या कोई और भी भेद है? मुसलमान शेष भारतवासियों से क्यों अलग हैं? जिन्ना ने जवाबी पत्र (17 दिसम्बर 1944) में लिखा था, ‘‘हम मानते हैं कि मुसलमान और हिन्दू देश की किसी भी परिभाषा के आधार पर अलग-अलग कौमें हैं। हमारी संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, कानून, परम्परा व इतिहास अलग-अलग है। जीवन के प्रति हमारा नजरिया भी अलग है। हम किसी भी अंतरराष्ट्रीय कानून के आधार पर अलग राष्ट्र हैं।‘‘ यह मुस्लिम लीग और जिन्ना का घोर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण था। इस साम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण को माने तो हिन्दू मुसलमान जब मिलकर रहते थे, तब भी मुसलमान अलग राष्ट्र थे। भारत के भीतर दो राष्ट्र थे। यह सोच अलगाववादी थी। वस्तुतः भारत प्राचीन काल से ही एक संस्कृति आधारित राष्ट्र है।

साम्प्रदायिक राजनीति स्वयं को अलग राष्ट्र मानती रही है। मजहब आधारित जनसंख्या में बढ़त इसीलिए चिन्ता का विषय है। मजहब के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग करना, इसके लिए लाखों लोगों की हत्या हिंसा किसी भी सूरत में उचित नहीं हो सकता। यह मानवता के विरुद्ध अपराध है। जनसंख्या के आधार पर ही मुस्लिम लीग ने अलग देश मांगा। भयंकर रक्तपात हुआ। इसलिए साम्प्रदायिक आबादी की बढ़त की कोई भी सूचना देश को चिन्ता में डाल देती है।

आंकड़ों के निष्कर्ष सत्य के उद्घाटन के लिए पर्याप्त हैं। अविभाजित भारत की अंतिम जनगणना 1941 में हुई थी। तब हिन्दू आबादी 84.44 प्रतिशत थी और मुस्लिम 13.38 प्रतिशत थे। मुसलमानों की इस संख्या में आज के पाकिस्तान और बांग्लादेशी मुस्लिम भी सम्मिलित थे। फिर देश का बंटवारा हुआ। भारत स्वतंत्र हुआ। कुल मुस्लिम आबादी की संख्या में पाकिस्तानी व बांग्लादेशी मुस्लिम जनसंख्या घट गई। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में हुई। तब पाकिस्तानी व बांग्लादेशी मुस्लिम जनसंख्या नहीं रही। इसलिए हिन्दू जनसंख्या का अनुपात 87.24 हो गया। मुस्लिम आबादी घटकर 10.43 हो गई। लेकिन 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में हिन्दू घटकर 84.21 प्रतिशत हो गए। मुस्लिम आबादी का अनुपात अविभाजित भारत के 13.38 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गया। आबादी के इसी अनुपात पर मुस्लिम लीग ने अलग देश की मांग की थी और पाकिस्तान अस्तित्व में आया था। इस तरह की जनसंख्या बढ़त से एक और मजहबी साम्प्रदायिक देश की जनसंख्या तैयार हो गई है।

साम्प्रदायिक राजनीति आर्थिक नीतियों से जुड़े गरीबी-अमीरी, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि मूलभूत प्रश्नों को महत्व नहीं देती। वे राजनीति में भी कट्टरपंथी मजहबी अलगाववाद चलाते हैं। साम्प्रदायिक अलगाववादी जिस देश में रहते हैं, उस देश की संवैधानिक व्यवस्था से भी टकराते हैं। राजनीति वोट बैंक के तुष्टीकरण के कार्यक्रम बनाती है। कट्टरपंथी मजहबी राजनीति की मांगे खतरनाक हैं। वे तुष्टीकरण की साम्प्रदायिक राजनीति को सेकुलर कहते हैं। वस्तुतः सेकुलर विचार में आस्था और अंधविश्वास नहीं होने चाहिए। मजहबी राजनीति सेकुलर हो ही नहीं सकती। इस्लामी विचारधारा के अंतरराष्ट्रीय विद्वान प्रोफेसर डेनियल पाइप के अनुसार, ‘‘दूसरे पंथों के विपरीत इस्लाम में सामाजिक जीवन के परिचालन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रोग्राम है। दूसरे पंथ केवल मौलिक मूल्यों के ही उपदेश देते हैं और भौतिक विषयों पर समय अनुसार विधान और नियम बनाने का काम समाज पर छोड़ देते हैं। इस्लामी राजनैतिक चिन्तन सुस्पष्ट ध्येय निर्धारित करता है। सभी मुसलमानों को इन नियमों का पालन अनिवार्य है। दूसरे पंथों में राजनीतिक क्रियाकलापों के लिए लिखित आदेश नहीं है। मुस्लिम विश्वास में ईश्वर पर विश्वास के साथ ही उनके पवित्र कानून भी हैं। यह कानून ‘शरिया‘ कहा जाता है। यह राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करता है। इस्लामी राजनीति में मजहब की प्रचंड प्रेरणा है।‘‘ (प्रोफेसर डेनियल पाइप-‘इन द पाथ आफ गॉड‘ पृष्ठ तीन)

गांधी जी हिन्दू मुसलमान की साझा राष्ट्रीयता चाहते थे। वे असफल रहे। डॉक्टर आम्बेडकर हिन्दू-मुसलमान के पक्ष पर गांधी जी से असहमत थे। डॉ० आम्बेडकर ने लिखा है, ‘‘गजनी के मोहम्मद ने भारत पर अपने अनेक हमलों को जेहाद छेड़ने की संज्ञा दी थी।‘‘ मोहम्मद के इतिहासकार अल उतबी ने उसके हमले के बारे में लिखा था, ‘‘उसने मंदिरों में मूर्तियों को तोड़ा और इस्लाम की स्थापना की। उसने शहरों पर कब्जा किया, नापाक कमीनों को मार डाला। मूर्ति पूजकों को तबाह किया और मुसलमानों को गौरवान्वित किया। तदुपरांत वह घर लौटा और इस्लाम के लिए की गई विजयों का ब्योरा दिया और यह संकल्प व्यक्त किया कि वह हर वर्ष हिन्द के खिलाफ जेहाद करेगा।‘‘ यही स्थिति अन्य हमलों की भी है। हजारों मंदिर तोड़े गए थे। श्रीराम जन्मभूमि, ज्ञानवापी काशी और मथुरा की घटनाओं के प्रसंग इस समय भी ताजा हैं।

यूरोप के अनेक देश मुस्लिम आक्रामकता को लेकर चिन्तित हैं। फ्रांस में पैगम्बर का कार्टून बनाने को लेकर भयानक हिंसा हुई। डेनमार्क में भी ऐसी ही साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। पाकिस्तान में ईश निंदा कानून के अंतर्गत ढेर सारे गैर मुसलमानों का उत्पीड़न जारी है। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर भी इसी तरह का हमला हुआ था। इसलिए जनसंख्या की बढ़त को लेकर चिन्ता स्वाभाविक है। भारत के लिए यह और भी चिन्ता का विषय है। मुस्लिम साम्प्रदायिकता के कारण ही देश टूटा था। अपनी इच्छा अनुसार जीवन ध्येय निर्धारित करना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। विवेक आधारित जीवन रस का आस्वाद प्रत्येक मनुष्य की अभिलाषा है। अपने अनुभव और विश्वास के अनुसार जीने का अधिकार स्वाभाविक है। इसलिए कि प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय है। अनूठा भी। किसी की जीवन पद्धति में हस्तक्षेप न करना और सबको अपने ढंग से जीवन जीने का अवसर मिलना प्राकृतिक न्याय है। दुनिया को सुन्दर बनाने की यह न्यूनतम शर्त है, लेकिन साम्प्रदायिक मजहबी राजनीति अपने मत को श्रेष्ठ और बाकी को ‘इनकार करने वाला‘ मानती है और इनकार करने वालों के लिए सजा का औचित्य भी सिद्ध करती है। मुस्लिम जनसंख्या की बढ़त के प्रभाव का विवेचन जरूरी है। यह चिन्ता मुस्लिमों के विरुद्ध नहीं है। चिन्ता का विषय आक्रामक साम्प्रदायिकता और अलगाववाद से छुटकारा पाना है। भारत के राष्ट्रजीवन व संविधान में सभी आस्था समूहों का सम्मान है। इसलिए जनसंख्या का असंतुलन गहन रूप में विचारणीय है। हिन्दू मुस्लिम सहअस्तित्व सामाजिक पुनर्गठन की बड़ी चुनौती