सत्य के साथ गांधीजी के प्रयोगों ने उनके विश्वास को पक्का कर दिया था कि सत्य की सदा विजय होती है और सही रास्ता सत्य का रास्ता ही है। आज मानवता की मुक्ति सत्य का रास्ता अपनाने से ही है। गांधी जी सत्य को ईश्वर का पर्याय मानते थे। गांधीजी का मत था कि सत्य सदैव विजयी होता है। अगर मनुष्य का संघर्ष सत्य के लिये है तो हिंसा का लेशमात्र उपयोग किये बिना भी वह अपनी सफलता सुनिश्चित कर सकता है। गांधी बनाम गोडसे में गांधीजी आज भी प्रसांगिक
गांधी की प्रासंगिकता निर्विवाद है और यह इतना समय-परीक्षित है कि इसके बारे में वैश्विक आशंका और बहस के बावजूद, मानव जाति की आखिरी उम्मीद केवल गांधी और गांधी ही हैं। लेकिन गांधी इतने विनम्र और नम्र हैं कि वह भावी पीढ़ी को चेतावनी देते हैं। उनके विचारों, विचारों को “गांधीवाद” मानने से बचना चाहिए। गांधी ने ठीक ही कहा था, “अभी तक गांधीवाद जैसा कुछ नहीं है।” बदलते दौर की राजनीति से इतर वर्तमान दौर में विशुद्ध राजनीति के तरफ बढ़ते कदम में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कोमल महात्मा की कठोर शैली आज भी प्रसांगिक हैं और रहेंगी। जहां महात्मा गांधी की हत्या करने वाले आजाद देश के पहले कहें जाने वाले आंतकी नाथूराम गोडसे की वकालत भले ही समाज में बैमनस्य फैलाने वाले लोग चर्चा कर रहें हो लेकिन सच्चाई तो यह है कि गांधी का कलेजा नापा नहीं महसूस किया जाता हैं। मेरा मानना है और जहां तक गांधी दर्शन को हमने पढ़ा है महात्मा गांधी पूरी तरह से मौलिक क्रांतिकारी थे। उस कोमल हृदय वाले महात्मा ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने की एक ऐसी कठोर शैली प्रस्तुत की जिसकी काट ब्रिटिश सरकार अंततः नहीं खोज पायी । जिसकी शक्ति और मौलिकता की संपूर्ण विश्व में कोई मिसाल नहीं थी। इसीलिए मैं कहता हूं गांधी एक विचारधारा हैं जो किसी भी फिरका परस्त ताकत के द्वारा खत्म नहीं की जा सकती । महात्मा गांधी ने हमेशा संघर्ष को ही चुना और उसी में भरोसा भी जताया।
जो संघर्ष अधिक मुश्किल है, जो संघर्ष लोकप्रिय नहीं है। अहिंसा अपने आप में लोकप्रिय सिद्धांत नहीं है। आज वर्तमान दौर में आप नौजवानों से बात करेंगे तो वे हिंसा को चुनेंने का रास्ता पसंद करते हैं। ओर करें भी क्यूं न जब उन्हें जाति के नाम पर धर्म के नाम पर प्रताडित किया जायेगा और हमेशा अछूत की नजरों से देखा जाएगा तो होना भी लाजमी हैं। गांधी ने तो बहुत कठिन और लोकप्रिय सिद्धांत को प्रस्तुत किया तथा उसे शांतिप्रिय लोगों की दिनचर्या बना दिया। लेकिन हमारे समाज में एक ऐसी वैमनस्यता फैला दी गयी की गांधी जी ऐसे नहीं ऐसे थें और उसमें सबसें ज्यादा तो बिना तथ्य के प्रोपेगैंडा चलाया गया। लेकिन उसका नतीजा कुछ न निकला न भविष्य में निकलेगा क्योंकि गांधी की प्रतिमा के सामने नाथूराम को मानने वाले तथा कथित लोग भी घुटने टेक देते हैं। इसलिए कहतें हैं हम गांधी को मानने वाले लोग हैं गोडसे भक्त नहीं हैं। खैर जब हिंसा की प्रतिष्ठा अपने पूरे चरम पर थी गांधी ने अहिंसा का एक ऐसा हथियार सामने रखा जिसमें मानव जाति के लिए एक नई आशा का सूत्रपात पैदा हुआ।
क्या आज हम एक ऐसा भारत नहीं है, जिसके युवा एक ओर तो आधुनिकतम सूचना प्रौद्योगिकी के कपाट खोलकर उसमें पूरी दुनिया को अपने से जोड़ लेने को बेताब है, दूसरी तरफ कुछेक खुदगर्जों की तंगदिली का आलम यह है कि वे गैर मजहबी की खिलाफत के जुनून में अपने मजहब के अनुयायी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते ? ऐसी हिंदू कट्टरता के जातीय कनेक्शन और धुव्रीकरण के अनुभवों के आइने में आज देखें, तो कभी पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, मराठा आरक्षण, सांई प्रकरण, और कभी मुसलिम कौम को आतंकी ठहराने अथवा कभी कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक नारों को हवा देते रहने का मकसद अंतत: हिंदू वोटों का धुव्रीकरण ही है। यह बात और है कि कालांतर में ये सभी हवायें मिलकर इंदिरा गांधी की तरह, खुद खोदी खाई में गिरने का एक कारण बन जाने वाली हैं। ऐसा न हो, इसलिए जरूरी है कि हम अगङे-पिछङे के भेद से बाहर निकलें। इसके बगैर, हिंदू कट्टरता से निजात फिलहाल नामुमकिन लगती है।
राइफलों और तोपों का सामना हथियारों से नहीं आत्मबल से किया गया और गोरे फिरंगियों को धूल चाटना पड़ा। आज तो गोरे अंग्रेजों से ज्यादा काले अंग्रेज महात्मा गांधी की राजनीति को विशुद्ध राजनीति बताते फिर रहें हैं। खैर बाबू जी ने कहा था बन्दूखों से नहीं प्रार्थनाओं से लड़ो, बमबारी और चीख पुकार से नहीं आत्मबल, खामोशी व धैर्य से लड़ो। उनके इस ऊपरी तौर पर सरल दिखने वाले इस संदेश में एक असीमित शक्ति छिपी हुई थी जिसने भारत जैसे भीड़-भड़क्के वाले देश में बिजली दौड़ा दी। गांधी का संदेश इतना सरल और सहज था कि कमजोर से कमजोर आदमी भी यदि चाहे तो मानवता के शिखर को छू सकता था।यूरोप में जब तानाशाह गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे थे और धू-धू कर जलती इमारतें भयावह शोर के साथ धराशाई हो रहीं थीं। तब आबादी के बोझ तले इस अजीबो-गरीब देश में गांधी एक-एक व्यक्ति तक अपना संदेश इतनी शांति के साथ फैला रहे थे कि उन्हें अपना स्वर ऊंचा करने तक की जरूरत तक नहीं पड़ी।
देश में अपने अनुयायियों को एकत्रित करने के लिए उन्हें कोई सब्जबाग दिखाने की जगह कड़ी चेतावनी देते थे ” जो मेरे साथ हैं उन्हें नंगे फर्श पर सोना होगा,खादी के खुरदरे कपड़े पहनना होंगे, सादा और स्वाद हीन भोजन करना होगा और अपना पाखाना भी स्वयं साफ करना होगा। आज हर काम के लिए चौकीदार और एक ऐसा चौकीदार जिसकी चौकीदारी में पूरा देश बिना किसी आदेश के हजारों हजार किलोमीटर पैदल भूखी प्यासी जनता अपने घरों तक कोविड काल में आयी। ऐसे समय में यदि गांधी जी होते तो वो भी उसी जनता के साथ पैदल चल रहें होतें। उस समय न सोशल मीडिया का युग था न इतनी संचार क्रांति थी फिर भी गांधी का संदेश बड़े-बूढ़े और महिलाओं के साथ बच्चों तक सहज रूप में पहुँच जाता था। गांधी जी अपना पत्र खुद व लांग हेंड में लिखते । कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हो, प्रार्थना सभा हो या सार्वजनिक अवसर हो जो भी बोलते वह देश की आवाज बन जाता था और आग की तरह फैल जाता। उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को झकझोर कर रख दिया। गांधी ने भूख का एक हथियार के रूप में उपयोग किया। उस भूख को जिसने आम भारतीय आदमी की पेट और पीठ एक कर दी थी। आम आदमी की हड्डियां बाहर निकाल दी थीं ।वे जहां भी गए जनता उनके पीछे-पीछे गयी। जब वे भोजन त्याग देते थे और उपवास पर बैठते तो इंग्लैंड का सिंहासन डोल उठता था। आज तमाम बडे़ हादसें हो रहें हैं मगर जिम्मेदार लोग इस बात को कहकर टाल देते हैं कि सत्तर सालों में जो नहीं हुआ आज हो रहा हैं ।
गांधी जी का हमेशा यही सपना रहा कि वे एक ऐसे आधुनिक भारत का निर्माण करेंगे जो दुनिया के सामने उनके सामाजिक आदर्शों की जीती जागती मिशाल हो। वे भारत को एक ऐसा देश बनाना चाहते थे जिसके सभी देशों से मित्रवत सम्बन्ध रहें। मानवता को डूबने से बचाने के लिए यह एक समझदार,दूरदर्शी व परिपक्व विचारों वाले व्यक्ति का कल्याणकारी पथ था।लेकिन आज उसी एक कपडें से खुद को ढ़के व्यक्ति के खिलाफ एक ऐसी विचारधारा उठ खडीं हो जाती हैं जो नफरत करती है। गांधी के पुतले पर गोली चलाती है तो ऐसे में हमें खुद से और समाज से भी सवाल करना चाहिए कि उस समय गांधी की प्रासंगिकता का आज के दौर पर क्या प्रभाव डालने वाला है। गांधी जी के समय में कोई भी उनके आश्रम में आ सकता था उनके साथ बहस कर सकता था कोई भी उनके पास आकर उनकी हत्या कर सकता था। यह चाहे उनके समय के या हमारे समय के अन्य राजनीतिक नेताओं के सुरक्षा-ग्रस्त जीवन से कितना उलट है। लेकिन फिर भी नफरत की भाषा बोलने वाले लोग गांधी के पुतले पर ही गोली चला देतें हैं । इस वर्तमान दौर में साम्प्रदायिक कट्टरता और उग्रता के बीच गांधी और उनके अलगाव की भावना और बढ़ गई है, क्योंकि उनके सिद्धांतों के अनुरूप साम्प्रदायिकता और उग्रता के लिए सभी धर्मों-विचारधारों को साथ लेकर चलना है। आज के दौर में उनका सिद्धांत बेहद कम हो गया है, क्योंकि पहले उनकी इतनी अधिक गिरावट कभी महसूस नहीं हुई थी। इसके साथ एक विरोधाभास यह है कि इतने सारे होने के बावजूद कोई भी उनके सिद्धांतों का पालन करने के लिए तैयार नहीं है। आज वो लोग जो गांधी वाद को बढने नहीं देना चाहते, गांधी जी के सिद्धांत को यदि माना जाता तो गांधी कि गोडसे पर बहस ही नहीं होती। लेकिन यह प्रयोग केवल आर्थिक स्तर तक सीमित नहीं था।
गांधीजी ने आगे कहा था, ”मैं ऐसे शॉर्टकट में विश्वास नहीं करता हूं जिसमें हिंसा शामिल हो। हालांकि मैं भी सराहनीय उद्देश्यों के प्रति सहानुभूति रखता हूं। यहां तक कि सबसे अच्छे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी मैं हिंसक तरीकों का अडिग विरोधी हूं। इसलिए वास्तव में कोई बैठक का मैदान नहीं है हिंसा की पाठशाला और मेरे बीच।”जो हृदय दूसरों के दुख को देखकर लहूलुहान हो जाता था, वह 30 जनवरी, 1948 को लहूलुहान हो गया और उसमें तीन मौत से जूझ रहे स्लग दफन हो गए। महात्मा ने सभी संतों का मार्ग बताया है.? भारत ने अपनी आत्मा खो दी है, लेकिन उसकी आत्मा जीवित है और जब तक भारत जीवित रहेगा, वह आत्मा हमारे बीच जीवित रहेगी।
सत्य- गांधीजी सत्य के बड़े आग्रही थे। वे सत्य को ईश्वर मानते थे। सत्य उनके लिये सर्वोपरि सिद्धांत था। वे वचन और चिंतन में सत्य की स्थापना का प्रयत्न करते थे।लेकिन वर्तमान समय में देखा जाए तो राजनीतिज्ञ, मंत्रीगण अपने पद की शपथ ईश्वर को साक्षी मानकर करने के बावजूद गलत काम करने से पीछे नहीं हटते। अपने कर्मों के पालन के समय वे सत्य को भी नकार देते हैं। अगर गांधीवादी सिद्धांतों का सही तरह से पालन किया जाए तो देश नवनिर्माण की दिशा में आगे बढ़ चलेगा।
अहिंसा- गांधीजी के अनुसार मन, वचन और शरीर से किसी को भी दु:ख न पहुँचाना ही अहिंसा है। गांधीजी के विचारों का मूल लक्ष्य सत्य एवं अहिंसा के माध्यम से विरोधियों का हृदय परिवर्तन करना है। अहिंसा का अर्थ ही होता है प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा। गांधी जी व्यक्तिगत जीवन से लेकर वैश्विक स्तर पर ‘मनसा वाचा कर्मणा’ अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने पर बल देते थे। आज के संघर्षरत विश्व में अहिंसा जैसा आदर्श अति आवश्यक है। गांधी जी बुद्ध के सिद्धांतों का अनुगमन कर इच्छाओं की न्यूनता पर भी बल देते थे। यदि इस सिद्धांत का पालन किया जाए तो आज क्षुद्र राजनीतिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये व्याकुल समाज व विश्व अपनी कई समस्याओं का निदान खोज सकता है। आज संपूर्ण विश्व अपनी समस्याओं का हल हिंसा के माध्यम से ढूंढना चाहता है। वैश्वीकरण के इस दौर में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा ही खत्म होती जा रही है। अमेरिका, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान जैसे देश हिंसा के माध्यम से प्रमुख शक्ति बनने की होड़ एवं दूसरों पर वर्चस्व के इरादे से हिंसा का सहारा लेते हैं। इस हेतु वैश्विक रूप से शस्त्रों की होड़ लग गई है। यह अंधी दौड़ दुनिया को अंतत: विनाश की ओर ले जाता है। आज अहिंसा जैसे सिद्धांतों का पालन करते हुए विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है जिसकी आज पूरे विश्व को आवश्यकता है।
सत्याग्रह- सत्याग्रह का अर्थ है सभी प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ शुद्धतम आत्मबल का प्रयोग करना। यह व्यक्तिगत पीड़ा सहन कर अधिकारों को सुरक्षित करने और दूसरों को चोट न पहुँचाने की एक विधि है। सत्याग्रह की उत्पत्ति उपनिषद, बुद्ध-महावीर की शिक्षा, टॉलस्टॉय और रस्किन सहित कई अन्य महान दर्शनों में मिलती है। गांधीजी का मत था कि निष्क्रिय प्रतिरोध कठोर-से-कठोर हृदय को भी पिघला सकता है। वे इसे दुर्बल मनुष्य का शस्त्र नहीं मानते थे। उनके अनुसार शारीरिक प्रतिरोध करने वाले की अपेक्षा निष्क्रिय प्रतिरोध करने वाले में कहीं ज्यादा साहस होना चाहिये।आज के समय में सत्याग्रह का प्रयोग विभिन्न स्थानों एवं परिस्थितियों पर सुसंगत एवं तार्किक प्रतीत होता है। राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी नीतियों, आदेशों से मतभेद की स्थिति में विरोध हेतु सत्याग्रह का प्रयोग कहीं श्रेयस्कर है। आत्मबल शारीरिक बल से अधिक श्रेष्ठ होता है। बुराई के प्रतिकार के लिये यदि आत्मबल का सहारा लिया जाए तो मौजूदा परेशानियाँ दूर की जा सकती हैं। गांधी बनाम गोडसे में गांधीजी आज भी प्रसांगिक
सर्वोदय- सर्वोदय शब्द का अर्थ है ‘सार्वभौमिक उत्थान’ या सभी की प्रगति। यह शब्द पहली बार गांधीजी ने राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ में पढ़ा था। सर्वोदय ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषण-मुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। ऐसे समाज में वर्ण, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी समुदाय का न तो संहार हो और न ही बहिष्कार। सर्वोदय शब्द गांधीजी द्वारा प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें ‘सर्वभूतहितं रता:’ की भारतीय कल्पना, सुकरात की ‘सत्य साधना’ और रस्किन की ‘अंत्योदय’ की अवधारणा सब कुछ सम्मिलित है। गांधीजी ने कहा था ‘‘मैं अपने पीछे कोई पंथ या संप्रदाय नहीं छोड़ना चाहता हूँ।’’ यही कारण है कि सर्वोदय आज एक समर्थ जीवन, समग्र जीवन और संपूर्ण जीवन का पयार्य बन चुका है।आज के दौर में पूरा विश्व एक ऐसे ही समाज की खोज में है जहाँ शोषण , वर्ग, जाति आदि की कोई जगह न हो। कहीं रोहिंग्या तो कहीं शिया और सुन्नी के नाम पर हिंसा हो रही है तो कहीं आतंक फैलाया जा रहा है। एक वर्ग दूसरे का शोषण कर रहा है जिससे समाज में अव्यवस्था फैल रही है। अगर गांधीजी के सर्वोदय की संकल्पना साकार होती है तो संपूर्ण विश्व एक परिवार का रूप ले सकता है।
स्वराज- हालाँकि स्वराज शब्द का अर्थ स्व-शासन है, लेकिन गांधीजी ने इसे एक ऐसी अभिन्न क्रांति की संज्ञा दी जो कि जीवन के सभी क्षेत्रों को समाहित करती है। गांधी जी के लिये स्वराज का अर्थ व्यक्तियों के स्वराज (स्व-शासन) से था और इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके लिये स्वराज का मतलब अपने देशवासियों हेतु स्वतंत्रता है और अपने संपूर्ण अर्थों में स्वराज स्वतंत्रता से कहीं अधिक है। आत्मनिर्भर व स्वायत्त्त ग्राम पंचायतों की स्थापना के माध्यम से ग्रामीण समाज के अंतिम छोर पर मौजूद व्यक्ति तक शासन की पहुँच सुनिश्चित करना ही गांधी जी का ग्राम स्वराज सिद्धांत था। आर्थिक मामलों में भी गांधीजी विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के माध्यम से लघु, सूक्ष्म व कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल देते थे। उनका मत था कि भारी उद्योगों की स्थापना के पश्चात् इनसे निकलने वाली जहरीली गैसें व धुंआ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, साथ ही बहुत बड़े उद्योगों का अस्तित्व श्रमिक वर्ग के शोषण का भी मार्ग तैयार करता है। आज इस महामारी के दौर में जब पूरे विश्व को एक बार फिर आर्थिक मंदी की ओर जाने का खतरा दिखाई दे रहा है ऐसे में इन कुटीर उद्योगों की स्थापना गरीब श्रमिकों के लिये आशा की किरण साबित होगी। गांधी बनाम गोडसे में गांधीजी आज भी प्रसांगिक
ट्रस्टीशिप- ट्रस्टीशिप एक सामाजिक-आर्थिक दर्शन है जिसे गांधीजी द्वारा प्रतिपादित किया गया था। यह अमीर लोगों को एक ऐसा माध्यम प्रदान करता है जिसके द्वारा वे गरीब और असहाय लोगों की मदद कर सकें। यह सिद्धांत गांधीजी के आध्यातिमक विकास को दर्शाता है, जो कि थियोसोफिकल लिटरेचर और भगवतगीता के अध्ययन से उनमें विकसित हुआ था। वर्तमान समय में गांधीजी की यह विचारधारा काफी प्रासंगिक है जब विश्व में गरीबी और भूखमरी चारों तरफ अपना साया फैलाये खड़ी है। गांधीजी का यह विचार कि धन व उत्पादन के साधनों पर सामूहिक नियंत्रण की स्थापना हेतु न्यास जैसी व्यवस्था स्थापित की जाए, काफी मायने रखती है।
स्वदेशी- स्वदेशी शब्द संस्कृत से लिया गया है और यह संस्कृत के दो शब्दों का एक संयोजन है। ‘स्व’ का अर्थ है स्वयं और देश का अर्थ देश ही है अर्थात् अपना देश। स्वदेशी का शाब्दिक अर्थ अपने देश से लिया जाता है परंतु अधिकांश संदर्भों में इसका अर्थ आत्मनिर्भरता के रूप में लिया जा सकता है। स्वदेशी राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह से अपने समुदाय के भीतर ध्यान केंद्रित करता है। यह समुदाय और आत्मनिर्भरता की अन्योन्याश्रिता है। गांधीजी का मानना था कि इससे स्वतंत्रता (स्वराज) को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि भारत का ब्रिटिश नियंत्रण उनके स्वदेशी उद्योगों के नियंत्रण में निहित था। स्वदेशी अभियान भारत की स्वतंत्रता की कुंजी थी और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यव्रमों में चरखे द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया गया था।
आज जब अमेरिका एवं चीन जैसे देश व्यापार-युद्ध के माध्यम से अपने देश को सशक्त और दूसरे देशों की आर्थिक व्यवस्था को कमज़ोर करने पर तुले हैं। ऐसी स्थिति में स्वदेशी की यह संकल्पना देश के घरेलू उद्योगों और कारीगरों हेतु एक वरदान की भांति सिद्ध होगा। गांधीजी शिक्षा के संदर्भ में अध्ययन व जीविका कमाने का कार्य एक साथ करने पर बल देते थे। आज जब बेरोजगारी देश की इतनी बड़ी समस्या है तब गांधीजी के इस विचार को ध्यान में रखकर शिक्षा नीतियाँ बनाना लाभप्रद होगा। गांधीजी का राष्ट्र का विचार भी अत्यंत प्रगतिशील था। उनका राष्ट्रवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के विस्तार से प्रेरित था। वे राष्ट्रवाद की अंतिम परिणति केवल एक राष्ट्र के हितों तक सीमित न मानते हुए उसे विश्व कल्याण की दिशा में विस्तृत करने पर बल देते थे। आजकल राष्ट्रवाद का अतिवादी स्वरूप होता देखकर गांधीवादी राष्ट्रवाद सटीक लगता है।
हम पाते हैं कि गांधीजी के विचार शाश्वत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने जमीनी तौर पर अपने विचारों का परीक्षण किया और जीवन में सफलता अर्जित की जो न सिर्फ स्वयं के लिये अपितु पूरे विश्व के लिये थी। आज दुनिया गांधी के मार्ग को सबसे स्थायी रूप में देखती है। गांधी बनाम गोडसे में गांधीजी आज भी प्रसांगिक