ईश्वर आस्था निजी विश्वास है

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ईश्वर आस्था निजी विश्वास है
ईश्वर आस्था निजी विश्वास है
हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित

सम्पूर्ण प्रकृति से आत्मीय व्यवहार श्रेष्ठ है। प्रकृति की शक्तियाँ सुनिश्चित नियमों में गतिशील हैं। वैदिक पूर्वजों ने इस नियम को ऋत कहा है। प्रकृति की तरह मनुष्य को भी नियमों के अनुसार चलना चाहिए। प्रकृति और मनुष्य तथा मनुष्य और सभी मनुष्यों के मध्य आचार संहिता का नाम धर्म है। ईश्वर आस्था निजी विश्वास है। धर्म में इसकी बाध्यता नहीं। कठोपनिषद् की कथा का नचिकेता युवा है। यम ने उसे ‘सत्यधृति‘ कहा। वह सत्यनिष्ठ है। धर्म के यथार्थवादी रूप को जानता है। धर्म सम्पूर्णता के प्रति मनुष्य का सत्यनिष्ठ आदर्श व्यवहार है। उसने यम से पूछा-”जो धर्म से पृथक है, अधर्म से पृथक है, भूत भविष्य से भी पृथक है, वह मुझे बताइए।” (1.2.14) यहाँ धर्म लोकजीवन की आचारसंहिता है, धर्म और अधर्म की सारी कार्यवाही देश और ‘समय के भीतर‘ है। नचिकेता ‘समय और देशकाल‘ की आचारसंहिता ‘धर्म-अधर्म और भूत भविष्य‘ से परे किसी अज्ञात तत्व ‘सत्य‘ का जिज्ञासु है। पूर्वजों ने उपलब्ध ज्ञान के आधार पर जीवनचर्या के नियम बनाए। इन्हें धर्म कहा गया। ईश्वर आस्था निजी विश्वास है

विज्ञान और दर्शन अंतरिक्ष का भी अनुसंधान कर रहे हैं। लेकिन पंथिक मजहबी विश्वासों में दैवी घोषणायें ही सत्य मानी जाती हैं। भारत में धर्म और आस्था विश्वास से निरंतर वाद-विवाद और संवाद की परम्परा है। धर्म गतिशील आचार संहिता है। परमसत्ता पर भी प्रश्न और प्रति-प्रश्न हैं। यहाँ लोक खुलकर प्रकट होता है, धैर्य से सुनता है और प्रश्न-प्रतिप्रश्न करता है। धर्म सत्य-निष्ठ जिज्ञासु जीवनशैली है। यही सत्य है। सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं। धर्म स्थिर आचार संहिता नहीं है। यहाँ समाज की तमाम शक्तियाँ धर्म को भी प्रभावित करती रही हैं।

वैदिक काल का धर्म आनन्द मगन करने वाला है। उत्तर वैदिक काल में तत्वज्ञान की शिखर ऊँचाइयाँ हैं। कुछ कर्मकाण्डों को भी चुनौती देती हैं। रामायण काल के धर्म में मर्यादा है। श्रीराम इसी मर्यादा के महानायक हैं। लेकिन महाभारत काल का धर्म अवनति में है। गीताकार ने बहुत खूबसूरत शब्द प्रयोग किया है-धर्म की ग्लानि। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-”जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब तब धर्म संस्थापन के लिए अवतार होते हैं।” श्रीराम और श्रीकृष्ण में भारी फर्क है। श्रीराम रामायण काल में प्रचलित धर्म को मजबूती देते हैं। दुख उठाकर भी मर्यादा का पालन करते हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लेकिन श्रीकृष्ण महाभारत काल के प्रचलित धर्म ग्लानि को चुनौती देते हैं।

वैदिक काल में मनुष्य प्रकृति के निकट है। सूर्य अस्त होते हैं, मनुष्य सो जाते हैं। ऊषा आती है, वह सबको जगाती है। वैदिक समाज के जागरण और निद्रा प्राकृतिक हैं। ऋग्वेद के समय सभा और समितियाँ हैं। सभा में सभ्य ही जाते हैं। सामाजिक विकास के क्रम में तमाम रूढ़ियाँ भी आईं। महाभारत में सभा के भीतर भी जुआ है। महाभारत काल के युधिष्ठिर धर्मराज हैं लेकिन जुए में पत्नी द्रोपदी को भी दाँव पर लगाते हैं। ऋग्वेद में पत्नी पूरे परिवार की ‘साम्राज्ञी‘ है। महाभारत में वह वस्तु और पदार्थ है। द्रोपदी इस धर्म को चुनौती देती है। लेकिन सभा में विराजमान द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म जैसे महानुभाव प्रचलित धर्म से ही जुड़े हैं। द्रोपदी आहत है कहती है, ”भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्चय ही भ्रष्ट हो गया है। राजाओं आप लोग क्या समझते हैं? मैं धर्म के अनुसार जीती गयी हूँ या नहीं।” (सभापर्व 67.41-42) महाभारत काल में धर्म की ग्लानि का समय है।

धर्म सबको धारण करता है। सब उसे धारण करते हैं। धर्म पालन में स्वतंत्रता है। इसलिए हरेक मनुष्य का अपना धर्म है। द्रोपदी के मन में धर्म की दूसरी कल्पना है, युधिष्ठिर और भीष्म आदि के मन में बिल्कुल दूसरी। भीष्म का उत्तर है, ”धर्म का स्वरूप अति सूक्ष्म होने के कारण मैं तुम्हारे प्रश्न का ठीक विवेचन नहीं कर सकता।” जुआ अधर्म है, जुए के खेल में बेईमानी और भी बड़ा अधर्म है लेकिन पितामह धर्म के सूक्ष्म स्वरूप की बहानेबाजी के साथ और भी नई चालबाजी करते हैं। कहते हैं, ”धर्मराज युधिष्ठिर धन सम्पदा से भरी पृथ्वी त्याग सकते हैं किन्तु धर्म नहीं छोड़ सकते। इन्होंने स्वयं ही हार मान ली है।” (सभा पर्व 67.47-49) भीम युधिष्ठिर के जुआ कर्म को गलत बताते हैं और कहते हैं, ”द्रोपदी की दुर्दशा के लिए मैं आपकी दोनों बाहें जला दूँगा।” ( सभापर्व 68.9) यहाँ भीम युधिष्ठिर से श्रेष्ठ दिखाई पड़ते हैं।

वैदिक काल से उत्तरवैदिक काल के बीच समय का लम्बा अंतराल है। वैदिक काल में परम्परायें पुष्ट हैं। उत्तर वैदिक काल में अन्तर्विरोध हैं। यज्ञ और पूजा से लाभ-हानि की बातें भी आ गयी हैं। इसी समय दर्शन का विकास हुआ। उपनिषद् दर्शन का आकाश छूना इस समय की विशेषता है। रामायण काल का धर्म मर्यादा पालन में खिला है। वैदिक समाज ने प्रकृति की शक्तियों को माँ-पिता देवता की तरह देखा था। महाभारत के श्रीकृष्ण उसी तत्व-दर्शन के व्याख्याता हैं। वैदिक ज्ञान सनातन प्रवाह है। गीता के चैथे अध्याय की शुरुआत में श्रीकृष्ण इसी ज्ञान की समाप्ति की चर्चा करते हैं-”दीर्घकाल में यही तत्व-ज्ञान नष्ट हो गया।” भारत प्रकाशरत राष्ट्रीयता है और धर्म इसी राष्ट्रीयता का संविधान। धर्म नाम के इस संविधान का सतत् विकास हुआ है। दर्शन विज्ञान ने इस विकास का नेतृत्व किया है।

ऋग्वेद के रचनाकाल को कम से कम ईसा से 7-8 हजार वर्ष पूर्व मानना चाहिए। कुछेक सूक्त इससे भी प्राचीन हो सकते हैं। काणे के अनुसार-”4000-1000 ईसा पूर्व के बीच वैदिक संहिता और उपनिषद् उगे हैं।” प्रमुख उपनिषदों का रचनाकाल 1500 ई०पूर्व भी हो सकता है। कुछ का ईसवी सन् के बाद भी। काणे के अनुसार-”800 से 400 ईसा पूर्व के मध्य प्रमुख श्रौत सूत्र और गृह्यसूत्र रचे गये।” काणे के अध्ययन विवेचन में गौतम, आपस्तंब, वोधायन आदि के धर्मसूत्र भी 600-300 ईसा पूर्व के हैं। वे गीता का रचनाकाल भी 500-200 ईसा पूर्व अनुमानित करते हैं। गीता महाभारत का ही हिस्सा है। चिंतन और तर्क-प्रतितर्क की जीवनशैली के विकास में विपुल ज्ञान भंडार की भूमिका है। रामायण और महाभारत ने अपने ढंग से लोक को प्रभावित किया है। पुराणों की भी अपनी भूमिका है। पतंजलि के योग सूत्र और कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी उल्लेखनीय है। चरक संहिता आयुर्वेद का ग्रंथ है।

भारतीय धर्म, दर्शन, परम्परा सतत् विकासशील है। विविधिता यहाँ का सौन्दर्य है और आत्मीयता प्राण तत्व। भारत का धर्म इसी संसार को सुन्दर बनाने की आचार संहिता है। बुद्ध का निर्वाण इसी संसार में है। उपनिषद् और भारत के 8 दर्शनों-सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदांत और बुद्ध, जैन का लक्ष्य इसी संसार को मधुमय बनाना है। धर्म में अंधविश्वास नहीं है, समाज में बेशक है लेकिन वह धर्म भाग नहीं है। इसलिए भारत तब तक धर्महीन नहीं हो सकता जब तक जल में रस है, अग्नि में ताप है, वायु में स्पर्श गुण है और आकाश में शब्द-ध्वनि की अनुगूँज। धर्म भारत की लोकमंगल अभीप्सा का विस्तार और कर्तव्य है।

भारत का धर्म दर्शन और विज्ञान का मधुफल है। अंधविश्वास नहीं प्रत्यक्ष सत्य है। वृहदारण्यक उपनिषद (1.4.14) में कहते हैं-”धर्म निश्चित ही सत्य है।” धर्म और सत्य में अभेद है। यह धर्म मधुवाता है। इसी उपनिषद (2.5.11) में कहते है-”धर्म सभी भूतों का मधु है। समस्त भूत धर्म के मधु है।” धर्म मधुमयता है। धर्म में ही अर्थ, काम और मुक्ति के सोपान हैं।ईश्वर में आस्था निजी विश्वास है। ईश्वर को मानना या न मानना, यह एक निजी पसंद है। ईश्वर का होना या न होना ऐसी अवधारणा है जिसे सिद्ध या असिद्ध नहीं किया जा सकता। ईश्वर आस्था निजी विश्वास है