जनसंख्या के बोझ से कराहती धरती

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जनसंख्या के बोझ से कराहती धरती
जनसंख्या के बोझ से कराहती धरती
डा.विनोद बब्बर 
डा.विनोद बब्बर 

जनसंख्या प्रत्येक राष्ट् की बहुमूल्य संपत्ति होती है। इसी से श्रम शक्ति उत्पन्न होती है और देश का विकास होता है। जब तक प्राकृतिक संसाधनों के अनुपात में जनसंख्या का विस्तार होता है। प्रकृति सभी का पालन पोषण करती है लेकिन संतुलन रहते प्रकृति पर दबाव नहीं होता परंतु जब अनुपात का अतिक्रमण करके मनुष्य जनवृद्धि करता है, तब यह स्थिति विस्फोटक हो जाती है । आज वैश्विक स्तर पर जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बहुत सी आवश्यकताओ की पूर्ति में असमर्थ है । इसका मूल कारण अनियंत्रित जनसंख्या है। विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश अब चीन नहीं, भारत है जबकि भारत और चीन के क्षेत्रफल में बहुत अंतर है। संसाधनों में अंतर है। जनसंख्या के बोझ से कराहती धरती

यदि हमने जनसंख्या विस्फोट को नहीं रोका तो इस बोझ से चरमराना तय है। प्रकृति के पास सीमित मात्रा में भूमि, जल, वायु, खनिज पदार्थ हैं परंतु तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या इन संसाधनों का अनियंत्रित दोहन कर रही है । परिणाम स्वरूप जो प्राकृतिक संसाधन सहजता से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करते जा रहे थे आज क्षीण होते जा रहे है। इससे प्राकृतिक परिवेश विषैला हो रहा है। अधिक जनसंख्या के लिए अधिक खाद्यान्न चाहिए परंतु रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक उपयोग से पृथ्वी की उर्वरता शक्ति कम हो रही है। प्रकृति का वातावरण दूषित होने से मनुष्य अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोगों से ग्रसित होता जा रहा है।

इस जनसंख्या विस्फोट को नियंत्रित किये बिना सामाजिक न्याय, समानता व बेहतर जीवन स्तर प्राप्त नहीं हो सकता । बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अशिक्षा, पर्यावरण प्रदूषण तथा जनसंख्याकीय असंतुलन जैसी समस्याओं को जन्म देती है और विकास कार्यो को निष्फल कर देती है। जनसंख्या को संतुलित रखकर ही प्रकृति में विद्यमान सीमित संसाधनों के द्वारा दरिद्रता, बेरोजगारी, भुखमरी , निरक्षरता जैसी समस्यायों को दूर किया जा सकता है। जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि बेशक अंतरराष्ट्रीय समस्या है लेकिन हमें अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करना है। इसलिए जाति, धर्म, राजनीति से ऊपर उठकर एक प्रभावी कार्ययोजना बनानी चाहिए अन्यथा परिणाम भयावह हो सकते हैं।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस का विचार, ‘यदि मनुष्य कृत्रिम उपायों से इस पर नियंत्रण नही रखता है तो प्रकृति स्वयं संतुलन स्थापित करती है। जो प्राकृतिक आपदाओं के रूप में विनाशकारी होता है।’ आज हमारे चारों ओर जो प्राकृतिक दुर्घटनाएं में हो रही तेजी से वृद्धि माल्थस के उपर्युक्त कथन को सही सिद्ध करती हैं क्योंकि इन दुर्घटनाओं के मूल में जनसंख्या का बढ़ता हुआ दबाव ही है। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए केवल भोजन ही नहीं, आवास, रोजगार, यातायात सहित अनेक प्रकार की सुविधा भी चाहिए। इनसे प्राकृतिक संसाधनों पर बोझ बढ़ने से रोका नहीं जा सकता ।

बढ़ती हुई जनसंख्या से उत्पन्न समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करने व समाधान करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ ने 11 जुलाई 1989 को प्रतिवर्ष जनसंख्या दिवस मनाना प्रारम्भ किया। इस दिन संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की शासकीय परिषद द्वारा विश्व स्तर पर जनसंख्या सम्बन्धी समस्याओं पर जनचेतना जागृत करने का प्रयास किया जाता है। अशिक्षा, महिलाओं में शिक्षा का अभाव, भाग्यवादिता, पुत्रैषणा, जागरूकता का अभाव, कम उम्र में विवाह अतिशय जनसंख्या वृद्धि के कारक माने जाते हैं। जनसंख्या नियंत्रण का संबंध किसी एक सम्प्रदाय, समुदाय अथवा जाति से नहीं हो सकता। क्योंकि जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव सभी पर समान रूप से पड़ता है। कुछ संप्रदाय एकाधिक विवाह और अधिक से अधिक संतान के पक्षधर है। उनसे जब भी परिवार को छोटा रखने की चर्चा की जाती है तो वे इसे ‘ऊपर वाले की देन’ बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं। ‘ऊपर वाले ने हमें किसी पिछड़े गांव में जन्म दिया था तो हम अभाव गरीबी से लड़ने के लिए किसी नगर महानगर में आए। क्या यह ऊपर वाले के निर्णय के विरुद्ध नहीं है?’, ‘रोग बीमारी भी ऊपर वाले की देन है, तब हम अपना उपचार ऑपरेशन क्यों करवाते है?’ जैसे प्रश्नों पर चुप्पी साधने वाले ये लोग जनसंख्या नियंत्रण की अपनी जिम्मेदारी को कब समझेंगे?

जनसंख्या को संतुलित करने के लिए सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर जनचेतना कार्यक्रम चलाकर लोगों को छोटा परिवार रखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। समाज का विशिष्ट वर्ग विद्वान ,शिक्षक, धर्मप्रचारक, राजनेता आदि अपना परिवार सीमित रखकर इस संदर्भ में महती भूमिका निभा सकते है। यदि कुछ लोग अथवा संप्रदाय इसके बावजूद भी बढ़ती हुई जनसंख्या को स्वीकार करने को तैयार ना हो तो जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना ही एकमात्र समाधान है। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए जहां दो बच्चों का कानून बनाना, उसे सख्ती से लागू करना जरूरी है, वहीं घुसपैठियों को रोकने पर भी विशेष ध्यान देना होगा। बंगाल से पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों में जनसंख्या असंतुलन का मुख्य कारण घुसपैठ है। यह भी जांच का विषय है कि इतने बड़े पैमाने पर घुसपैठ का कारण कहीं अपने ही देश के कुछ लोग तो नहीं? व्यवस्था में ऐसी क्या खामियां है कि जिसका लाभ उठाकर ये लोग यहां आसानी से आधार कार्ड, वोटर कार्ड प्राप्त कर लेते है। ये घुसपैठियें किसी सहानुभूति के पात्र नहीं हो सकते। देश भर की पुलिस रिपोर्टो के अनुसार ये लोग अक्सर अपराधिक वारदातों में भी शामिल रहते हैं। अतः आगामी दिनों में देशभर में होने वाली जनगणना में इनकी पहचान सुनिश्चित कर इन्हें निकाल बाहर करने में किसी प्रकार की कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए।

जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए सरकार को सामाजिक सुरक्षा योजनाएं लागू करनी चाहिए। निसंतान तथा वृद्ध नागरिकों का दायित्व सरकार को स्वीकार करा चाहिए। इसके सकारात्मक प्रभाव निश्चित रूप से सामने आऐंगे। इससे पहले कि जनसंख्या का बोझ अराजकता की स्थिति उत्पन्न करे, चेतना होगा। प्रश्न किसी एक धर्म या जाति का नहीं इसलिए देशहित के इस मुद्दे पर प्रत्येक जागरूक भारतीय का साथ आना जरूरी है। यदि हम आज नहीं चेते तो कल आने वाली पीढ़ियां हमे कटघरे में खड़ा कर प्रश्न करेगी कि‘ जब देश जनसंख्या के बोझ से दबा जा रहा था तो आप स्वयं को सेकुलर, मानवाधिकारी बेड़ियों से क्यों बांधे रहे? हमारा आज का मौन बेशक अपराध में सीधे शामिल न भी तो भी मौन समर्थन जरूर है। क्या प्रत्येक सच्चे भारतीय को अब दो से अधिक बच्चों वाले के सामाजिक बहिष्कार के बारे में विचार करना चाहिए…? जनसंख्या के बोझ से कराहती धरती