श्रद्धा और विश्वास में अंतर…!

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हृदयनारायण दीक्षित

            संशय का महत्व है। संशयी प्रत्यक्ष पर पूरा विश्वास नहीं करता। वह तर्क करता है। विश्वासी से संशयी बड़ा है। विश्वासी तृप्त है और संशयी बेचैन, अतृप्त। भारतीय जीवनशैली में अंधविश्वास को कोई जगह नहीं मिला। लेकिन विश्वासी और संशयी से भी बड़ा जीवन मूल्य है श्रद्धा। श्रद्धा और विश्वास में अंतर है। अस्तित्व के प्रति प्रेम का नाम है श्रद्धा। श्रद्धा साधारण प्रीति नहीं। परम प्रीति है। वैज्ञानिक संपूर्ण जानकारी के लिए प्रयासरत हैं। गैर जाने भाग के बारे में जानकारियां परिपूर्ण नहीं हैं। हमारी जानकारी ही है कि हम इसे नहीं जानते। लेकिन यह जानकारी भी पर्याप्त है। इससे शोध के प्रयास की तीव्रता बढ़ती है। अस्तित्व का इससे भी बड़ा भाग अज्ञेय है। जाने हुए, जानने की सूची में आए हुए और बिना जाने भाग सहित संपूर्ण अस्तित्व के प्रति हमारी प्रीति का नाम है श्रद्धा। श्रद्धा कोई विचार नहीं है। श्रद्धा, पंथ, मत, मजहब या रिलीजन के उपदेशों वाला विश्वास नहीं। श्रद्धा और विश्वास में अंतर…


श्रद्धा अनुभूति है। बूंद के हृदय में सागर का साक्षात्। क्षर में अक्षर का प्रत्यक्ष। सोंचना साधारण मानसिक कार्रवाई है। भारतीय दृष्टि में हरेक मानसिक या बौद्धिक कार्रवाई का आदि अंत ज्ञान है। लेकिन ज्ञान का अवसान कर्म में होना चाहिए। कोरे शब्द ज्ञान का कोई मतलब नहीं। वैसे कर्म का अवसान भी ज्ञान में होता है। कर्म करते-करते सप्रयास या अनायास अंतःकरण से कोई सुगंध उठती है। गंध आच्छादन होता है। कोई गीत उगता है। संगीत आता है। मेघ आते हैं, बिना मानसून ही और सब कुछ रसमय, गंधमादन और गीत संगीत से भर जाता है। यह हुई श्रद्धा। संभव है कि अब तक ऐसा नहीं हुआ हो लेकिन श्रद्धा है कि ऐसा हो सकता है किसी भी क्षण। उस क्षण या होनी की धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा भी श्रद्धा ही है। मेघ आएंगे ही, बादलों को क्यों कोसना? सूर्य उगेंगे ही, अंधेरे से क्या उलाहना। ऊषा आएगी ही, अंधकार से क्यों उलझना? सूर्य अरूण तरूण होकर हमें प्रकाश किरणो से नहलाएगे ही अधीर क्यों होना? ऐसी आश्वस्त प्रतीक्षा श्रद्धा है। श्रद्धा आनंद आश्वस्ति है।


भारतीय इतिहास का उत्तर वैदिक काल अग्निधर्मा था। यज्ञ प्रतिष्ठा की अग्नि आंच थी ही, ज्ञान अग्नि के ताप से तपे उपनिषदों के आग्नेय मंत्र भी इसी समय उगे। इसी साहित्य के एक आनंदवर्द्धन मंत्र में ‘श्रद्धा’ को पत्नी और सत्य को यजमान कहा गया है-श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमानः। यहाँ यज्ञ का सुन्दर प्रतीक है। यज्ञ में पति-पत्नी साथ बैठते थे। पुरोहित लोककल्याण और यज्ञ आयोजक के लिए मंत्र बोलते थे। यज्ञ के आयोजक यजमान कहे जाते थे। पत्नी के बिना पारंपरिक कर्मकाण्ड पूरे नही होते। इस मंत्र में ‘सत्य’ यजमान है। यज्ञ साधारण हवन नहीं। वैदिक अनुभूति में अस्तित्व की पूरी गतिविधि भी यज्ञ ही है। विज्ञान, दर्शन, योग या शोध का उद्देश्य ‘सत्य’ प्राप्ति है। यहां सत्य ही आनंद है। मंत्र का दूसरा भाग बड़ा रोमांचकारी और प्रीतिकर है – “श्रद्धा सत्यं तत् अत्युतमं मिथुनं। पत्नी श्रद्धा और यजमान सत्य का मिथुन – प्रेमपूर्ण मिलन अतिउत्तम है। इसी मिलन से आनंद लोक मिलते हैं।” श्रद्धा और सत्य की ‘लवस्टोरी’ रमणीय है।


श्रद्धा और सत्य का मिलन ही आनंद प्राप्ति का उपाय है। मिलन भी सामान्य नहीं – श्रद्धया सत्येन मिथुने। ठीक से मिलन। जब दो नहीं बचे तब। अद्वय मिलन। श्रद्धा और सत्य दो अनुभूतियां जान पड़ती हैं। दोनो की प्रीति अजर अमर है। सत्य मिला तो श्रद्धा भी मिली। श्रद्धा आई, प्रगाढ़ हुई, संपूर्ण हुई तो सत्य की लब्धि। सत्य श्रद्धाहीन नहीं हो सकता। श्रद्धा सत्यविहीन नहीं हो सकती। सत्यहीन श्रद्धा अंधविश्वास है। बिना जाने, देखे, समझे और अनुभव रस के अभाव के बावजूद मान लेना श्रद्धा नहीं है। यहाँ लोकजीवन में वरिष्ठों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द हैं। ‘श्रीमान’ कहने का अपना सुख है। मान्यवर या माननीय में मानने की ध्वनि है। ‘माननीय’ में अंतःकरण की हूक नहीं। बिना जाने ही मान लेने की चूक जान पड़ती है। जनप्रतिनिधियों को ‘माननीय’ कहते हैं। कर्मकाण्ड की तरह यों ही। न प्रीति,न प्यार,न स्नेह। बस यों ही। बड़ों के प्रति आदर की सबसे गहरी अभिव्यक्ति है-श्रद्धेय।


श्रद्धेय में श्रद्धा योग्य जानने का संकेत है। श्रद्धेय बड़ा श्रद्धेय शब्द है। कहने में और सुनने में भी। यह सुनने वाले ‘श्रद्धेय’ को संकोची बनाता है और कहने वाले को विनयी। लेकिन श्रद्धा है कि श्रद्धा और सत्य का मिथुन भी ‘श्रद्धेय’ ही होना चाहिए। भौतिकवादी श्रद्धा को अंधविश्वास बताते हैं। कुछेक इसे भाववाद तक ले जाते हैं। ‘श्रद्धा’ मनोभाव नहीं है। ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवता हैं। कहते हैं “श्रद्धा से ही अग्नि प्रज्जवलन होता है और श्रद्धा से ही आहुति समर्पण होता है।” यहां श्रद्धा विभूतियों का शिखर हैं-श्रद्धां भगस्य मूर्धनि। ऋषि उनका अनेकशः आवाहन करते हैं “हम प्रातः मध्यान्ह और प्रातः संध्या श्रद्धा का आवाहन करते हैं। वे श्रद्धा हमें परिपूर्ण श्रद्धा दें। श्रद्धे श्रद्धाययेह नः।” यहां श्रद्धा जीवन का ही भाग है। श्रद्धा में ज्ञान और प्रेम दोनो हैं। बुद्धि और हृदय की युति है। गद्य और काव्य एक साथ हैं। यहां विश्वास के साथ सत्य भी है। विचार और भाव की एका है।


श्रद्धा प्रतीक्षा है। असंशयी प्रतीक्षा। गणित के सूत्र जैसी। तैत्तिरीय ब्राह्मण में उन्हें विश्वर्निमात्री प्राकृतिक शक्ति की पुत्री बताया गया है। उन्हें ‘सूर्यदुहिता’ भी कहा गया है। श्रद्धा का उल्टा ‘संशय’ होगा। संशय ज्ञान यात्रा में सहायक है। संशय को दूर करने के लिए तर्क, प्रतितर्क, आचार्य और विज्ञान के उपकरण हैं। ये उपकरण महत्वपूर्ण हैं और सत्य भी हैं। ज्ञान या अनुभूति की कोई भी यात्रा शून्य से नहीं शुरू होती। प्रकृति भी शून्य से नहीं उगी। हम इन्द्रियबोध के कारण ही संसार से जुड़ते हैं। क्या आंख पर संशय कर सकते हैं? क्या कान, नाक, स्वाद या स्पर्श पर भी? संशयी को ऐसा करना ही चाहिए। तब प्रारम्भ कहां से करें? स्वयं की बुद्धि भी इन्द्रियबोध का ही परिणाम है। स्वयं की बुद्धि पर भी संशय हो तो क्या करेंगे? तीन उपकरण बताए गए हैं-प्रमाण, अनुमान और अनुभूत शब्द। प्रमाण अनुमान इन्द्रियबोध से जुड़े हैं। विद्वानों के शब्द श्रद्धा से।


श्रद्धा गहन आत्म विश्वास का पर्याय है। इन दिनों घने कोहरे में ठीक से नहीं दिखाई पड़ता। शीत घनत्व ज्यादा है। निकट देखना भी विकट है। गहन अंधकार में भी ऐसा ही होता है। कोहरे में सामान्य प्रकाश काम नहीं करता। कोहरे के कारण दुर्घटनाएं होती हैं। जिम्मेदार लोगों की निन्दा होती है। ऐसी निन्दा में हताशा, निराशा विशेष महत्व पाते हैं। लेकिन कोहरा या अंधकार स्थायी नहीं है। सूर्य स्थायी है। वे कोहरे में भी होते हैं। समाजचेता का उत्तरदायित्व अंधकार का अस्थायित्व बताना और सूर्य तेजस् के सतत् प्रवाह का विवरण देना है। निराशा, हताशा नहीं आशा और उत्साह का वातावरण बनाना है। जीवन के प्रति पराजय नहीं उल्लास का भाव। जीवन के कृष्णपक्ष ही नहीं शुभ्र पक्ष की चर्चा भी होनी चाहिए। प्रकृति सृष्टि के प्रति ‘श्रद्धा’ भाव को पुष्ट करना जरूरी है। श्रद्धा और विश्वास में अंतर…