

दलित वोट बैंक बसपा की राजनीतिक ताकत की रीढ़ रहा है। कांशीराम और मायावती ने इस सामाजिक वर्ग को न केवल एकजुट किया बल्कि उसे सत्ता की निर्णायक धुरी बना दिया। यही वर्ग बसपा की पहचान और उसके उभार का आधार बना। हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरणों और नए सामाजिक गठबंधनों के दौर में दलित वोट बैंक की निष्ठा पर अब कई दल अपनी निगाहें गड़ाए हुए हैं । दलित वोट बैंक बसपा की रीढ़
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने 09 अक्टूबर को लखनऊ में मान्यवर काशीराम जी जयंती पर एक बड़ी जनसभा की। बहनजी ने काफी लम्बे समय के बाद कोई जनसभा की थी,लेकिन उनके अंदाज वही पुराने थे। चेहरे पर शांति का भाव और दिल में समाज के प्रति समर्पण। मायावती तीखे राजनीतिक दांव चलने वाली नेता मानी जाती रही हैं। समय-समय पर वह अपनी राजनीति में नये-नये प्रयोग भी करती रहती हैं। इसी तरह से 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए उनकी रणनीति में बड़ा बदलाव दिखाई देने लगा है। इस बार चर्चा है कि मायावती अपने पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक पर सीधे दांव लगाने से बच सकती हैं और इसके बजाय अपने पुराने कोर वोटर्स दलित समाज के साथ-साथ अन्य जातीय समूहों को साधने की कोशिश कर रही हैं। ऐसा लगता है कि बहनजी 2007 की तरह से 2027 में भी सामाजिक समीकरण साधना चाहती हैं।
पिछले चुनावों में मायावती ने कई सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर सपा के साथ मुस्लिम समुदाय में पैठ बनाई थी। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उन्हें एक नया गणित सिखाया है। मुस्लिम मतदाता लगातार सपा या कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखा, जिससे बसपा को अपेक्षित फायदा नहीं मिला। 2027 में मायावती शायद मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या घटाकर, गैर-यादव ओबीसी, गैर-जाटव दलित और ब्राह्मण वोटरों को प्राथमिकता देने का रास्ता अपनाएं। इससे वह सपा-कांग्रेस के ‘मुस्लिम-यादव’ गठजोड़ से टकराव से बचेंगी और अपनी अलग पहचान बनाए रखेंगी।
मायावती जानती हैं कि दलित वोट बैंक बसपा की रीढ़ है, लेकिन इसमें विस्तार के बिना सत्ता तक पहुंच नामुमकिन है। इसके लिए वह निम्न वर्गों में आर्थिक व सामाजिक मुद्दों को जोर-शोर से उठाने की योजना बना रही हैं। मायावती की नजर गैर-यादव ओबीसी समुदाय (कुर्मी, मौर्य, लोध, निषाद आदि), ब्राह्मण वर्ग, जो भाजपा से कुछ असंतोषित है, युवा बेरोजगार, खासकर ग्रामीण इलाकों के, महिलाएं, जिन्हें कानून-व्यवस्था और सुरक्षा का मुद्दा सीधे प्रभावित करता है, पर लगी हुई है। इसके तहत मायावती दलित-ओबीसी-ब्राह्मण का नया त्रिकोणीय वोट बैंक बनाने की कोशिश कर सकती हैं, ताकि मुस्लिम वोटों से परे भी उनके पास निर्णायक समर्थन हो।
हाल ही में मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कानून-व्यवस्था और कुछ विकास योजनाओं की सार्वजनिक तारीफ की है। उनके इस कदम को विपक्षी पार्टियां, खासकर सपा और कांग्रेस, भाजपा के साथ उनकी ‘नजदीकी’ का संकेत मान रही हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह तारीफ एक सोच-समझकर उठाया हुआ कदम है, जिससे वह भाजपा विरोधी वोटरों में भी एक ‘गैर-टकराव वाली’ नेता के रूप में सामने आएं। लेकिन इसमें जोखिम यह है कि विपक्ष उन्हें भाजपा की ‘छिपी सहयोगी’ के रूप में पेश कर सकता है, जिससे कुछ पारंपरिक विरोधी वोटर उनसे दूरी बना सकते हैं। मायावती यहाँ बेहद संतुलित बयानबाज़ी कर रही हैं,भाजपा के साथ औपचारिक गठबंधन से बचते हुए, उनकी सरकार की कुछ उपलब्धियों को स्वीकार कर रही हैं ताकि भाजपा मतदाता भी उन्हें नकारात्मक न देखे। 2027 की तैयारियों में मायावती का एक और संभावित कदम पुराने, प्रभावशाली बसपा नेताओं को वापस लाना हो सकता है। पिछले एक दशक में पार्टी से जुड़े कई वरिष्ठ नेता अन्य दलों में गए हैं, जिनमें से कुछ की अपनी जातीय या क्षेत्रीय पकड़ है।
अगर ये नेता वापस आते हैं तो बसपा के जिलास्तरीय संगठन फिर से मजबूत हो सकते हैं। इससे गांव-गांव में बसपा का बूथ नेटवर्क सक्रिय होगा और दलित-ओबीसी मतदाताओं को संगठित करने में मदद मिलेगी।भले ही मायावती मुस्लिम वोट बैंक पर दांव कम लगाएं, लेकिन दलित समाज में उनकी पकड़ आज भी मजबूत है। मायावती इस बार ’संविधान और दलित अधिकारों’ की रक्षा को फिर से चुनावी मुद्दा बना सकती हैं। भाजपा से नाखुश कुछ दलित वोटरों को भी वह अपनी तरफ खींचने का प्रयास करेंगी। दलित युवाओं को आकर्षित करने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग, और शिक्षा में अवसर बढ़ाने जैसे मुद्दे वह प्रचार में जोर-शोर से उठा सकती हैं। कुल मिलाकर सपा-कांग्रेस गठबंधन मुस्लिम वोट बैंक और कुछ ओबीसी वर्गों पर अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, वहीं भाजपा हिंदुत्व, विकास और कल्याण योजनाओं के जरिए गांव शहर में अपना आधार मजबूत कर रही है। इस टकराव के बीच मायावती ‘तीसरी ताकत’ बनकर उभरने की कोशिश करेंगी। अगर वह अपना जातीय समीकरण सही बैठाती हैं और संगठन की कमजोर कड़ियों को जोड़ पाती हैं, तो मुस्लिम वोट के बिना भी बसपा सत्ता की दौड़ में मजबूती से उतर सकती है।
कुल मिलाकर , 2027 का चुनाव मायावती के लिए इस मायने में खास होगा कि वह मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर रहने की पुरानी रणनीति छोड़कर एक ’बहुजातीय गठबंधन’ बनाने की दिशा में बढ़ रही हैं। योगी आदित्यनाथ की तारीफ से उन्हें कुछ राजनीतिक लाभ मिल सकता है, लेकिन इसका खतरा भी है कि उन्हें भाजपा के साथ खड़ा देखा जाए। अगर मायावती पुराने बसपा नेताओं को वापस ला पाती हैं, और दलित-ओबीसी-ब्राह्मण त्रिकोण को साधने में सफल होती हैं, तो वह भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन, दोनों के लिए चुनावी चुनौती बन सकती हैं। आने वाले महीनों में उनके बयान और उम्मीदवार चयन इस बदली हुई रणनीति को साफ़ कर देंगे। दलित वोट बैंक बसपा की रीढ़