

बर्बादी के बटन पर उंगलियां : सोशल मीडिया की गहराई में डूबता बचपन।आज का बच्चा स्कूल के पाठों से पहले स्क्रीन की चमक में डूब रहा है। खेल के मैदान की धूल से ज़्यादा उसके अंगूठे मोबाइल स्क्रीन पर फिसलते हैं। इस तकनीकी युग में जहां सोशल मीडिया ने सारी दुनिया को जोड़ दिया है, वहीं यह नासमझ उम्र को खतरे के दरवाज़े तक भी पहुँचा रहा है। सोशल मीडिया की गहराई में डूबता बचपन
“जब एक बच्चा अपने खिलौनों से नहीं, कैमरे के एंगल से खेलना शुरू कर दे, तो समझ लीजिए… बचपन अब मासूम नहीं रहा।” आज की पीढ़ी के बच्चे किताबों में नहीं, की-बोर्ड में खो गए हैं। वे रिश्तों में नहीं, रील्स में जी रहे हैं। और यह सब हो रहा है एक ऐसे माध्यम की वजह से, जिसे हम ‘सोशल’ मीडिया कहते हैं लेकिन असल में यह बच्चों को धीरे-धीरे ‘असामाजिक’ बना रहा है, खुद से, अपनों से और अपने सपनों से।
क्लिक से क्लासरूम तक का अपहरण
कोविड के बाद जब बच्चों के हाथ में मजबूरी में मोबाइल आया, तब किसी ने नहीं सोचा था कि ये स्क्रीन उनकी दुनिया पर राज करने लगेगी। क्लास खत्म होने के बाद भी मोबाइल खत्म नहीं हुआ। क्लास की जगह कैमरा ले बैठा, किताबों की जगह कंटेंट आ गया, और संवाद की जगह साउंड इफेक्ट्स। अब बच्चा किताब खोलने से पहले कैमरा खोलता है। ‘गुड मॉर्निंग’ कहने से पहले ‘रिल’ अपलोड करता है। यह बदलाव नहीं, बर्बादी की शुरुआत है। और हम सभी इसकी मूक गवाही दे रहे हैं।
दिमागी डेटा फुल लेकिन ज्ञान जीरो
सोचिए! एक 10 साल का बच्चा 100 गानों की लिप्सिंग कर सकता है, लेकिन अपनी कक्षा की कविता की दो पंक्तियाँ याद नहीं कर सकता। वो सोशल मीडिया ट्रेंड्स की बात करता है, पर देश-दुनिया की खबरों से बेखबर है। यह ज्ञान नहीं, ‘ग्लैमर’ का बोझ है, जो बचपन की रीढ़ तोड़ रहा है।
हर ‘लाइक’ के पीछे एक अकेला दिल
बच्चे अब रियलिटी से नहीं, वर्चुअल दुनिया से अपनापन तलाश रहे हैं। उन्हें लगता है कि जितना ज्यादा ‘लाइक’, उतनी ज्यादा क़द्र। पर सच तो यह है कि सोशल मीडिया ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया है। आत्म-संयम, धैर्य, मेहनत, आदर्श। सब कुछ एक-एक करके छीन लिया गया है। और सबसे खतरनाक बात, वे जो नहीं हैं, वो बनने की कोशिश कर रहे हैं। नकली हंसी, बनावटी पोज, दिखावे के डायलॉग्स। ये सब उन्हें धीरे-धीरे खुद से दूर कर रहे हैं।
माँ-बाप, आप सिर्फ दर्शक नहीं, दिशा हैं!
सवाल उठता है, क्या इस बर्बादी के लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार हैं? नहीं! दरअसल, हम माता-पिता ने भी उन्हें इस दलदल में धकेला है। मोबाइल देकर हम शांत हो गए, पर यह भूल गए कि वो मोबाइल क्या-क्या सिखा रहा है। ज़रूरत है कि अब हम बच्चों के दोस्त बनें, उनके गाइड बनें। हर दिन कुछ वक्त बिना फोन बिताएं, उनसे बातें करें, उनकी दुनिया में दिलचस्पी दिखाएं। ये बातें सुनने में मामूली लगती हैं, लेकिन असर गहरा होता है।
समाधान सिर्फ नियंत्रण नहीं, संबंध है।
बच्चों को मोबाइल से दूर करना है तो उन्हें जीवन से जोड़ना होगा। उन्हें सिखाएं कि ‘वायरल’ होने से कहीं बेहतर है ‘वैल्यू’ वाला इंसान बनना। उन्हें खेल, कला, किताब, प्रकृति और रिश्तों की ओर मोड़ें। स्कूलों में डिजिटल हेल्थ की शिक्षा दी जाए। परिवारों में हर दिन ‘नो स्क्रीन टाइम’ लागू हो। और समाज मिलकर यह तय करे कि ‘रील’ से पहले ‘रियल’ ज़िंदगी ज़रूरी है।
अंत में बस यही सवाल…
क्या हम अगली पीढ़ी को ‘डिजिटल एडिक्ट’ बनने देंगे..?
या उन्हें फिर से इंसानियत, संवेदनशीलता और समझ की राह पर लाएंगे..?
क्योंकि बच्चे वो बीज हैं, जिन्हें मोबाइल की गर्मी नहीं, मिट्टी की ठंडक चाहिए।
बचपन वह दौर है जहाँ सोच बनती है। अगर यही सोच बर्बादी के बटन पर टिक जाए, तो भविष्य कैसा होगा? आइए, समय रहते पहचानें कि हमें मोबाइल से बच्चों को नहीं, बल्कि बच्चों से मोबाइल को नियंत्रित करना है। तभी बचपन, बचपन रह पाएगा — खिलखिलाता, निर्मल, और उज्ज्वल। सोशल मीडिया की गहराई में डूबता बचपन