गुमसुम होता बचपन

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गुमसुम होता बचपन
गुमसुम होता बचपन
विजय गर्ग
विजय गर्ग

सामाजिक परिवेश के अनेक आयामों में पारिवारिक परिधि सबसे लघु इकाई मानी जाती है, जिसके ताने-बाने की डोर परिवार के समस्त सदस्यों को किसी न किसी रूप में बांधे रखती है। कभी घर- आंगन के सभी सदस्यगण अपनी अपनी जिम्मेवारी के बंधन को बखूबी निभाते थे और वे एक स्वतःस्फूर्त अनुशासन के आभामंडल से जुड़े रहते थे । संयुक्त परिवार के सभी सदस्य क दूसरे से हिल-मिल कर सामंजस्य बिठाते हुए आत्मीय तरंग बिखेरते थे, जिसके कारण परिवार में अमन-चैन कायम रहता था। दादा-दादी, मां-पिता, चाचा-चाची, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि संबंधों में परस्पर सद्भाव और समझदारी की गंगा बहती थी। बचपन में सुबह – सुबह पाठशाला न जाने के बहाने बनाने पर मां-चाची बहला-फुसला कर स्कूल जाने को विवश कर देते थे। गुमसुम होता बचपन

बदलते समय ने आज बहुत कुछ हालात को भाग-दौड़ की गति से आबद्ध कर दिया है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भले औसत रूप में मानवीय दिनचर्या सामान्य है, लेकिन नगरीय रहन-सहन में विशेषकर एकल परिवार को बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। परिवार में सीमित संसाधनों की उपलब्धता और भौतिक आवश्यकताओं की ओर मन की व्यग्र इच्छा ने पारिवारिक आंगन में वैचारिक कोलाहल मचा रखा है। सहनशीलता की घोर कमी ने भी परिवार में छोटी-मोटी बातों पर तनाव और मनमुटाव की झड़ी लगा रखी है।

ऐसी स्थिति आमतौर पर अब लगभग हर घर में देखी जा रही है, जहां विशेषकर किशोर अपने माता-पिता के गुस्से में हुई बहस या लड़ाई झगड़े के समय सन्नाटे में जाकर चुपचाप बैठ जाते हैं । उस समय उनके मानसिक आवेग बड़े ही संवेदनशील होकर उनके चिंतन तंत्र को कुप्रभावित करते हैं। इस हालात में उन्हें भावनात्मक और संज्ञानात्मक रूप से कमजोरी के दौर से गुजरने की बाध्यता होती है और यह स्थिति उनके मस्तिष्क पर दीर्घकालिक असर छोड़ती है। उनके अंदर बाल मन की गतिशीलता की नैसर्गिक प्रतिभा विचलन की ओर जाती दिखती है । टकराव या गुस्से में माता – पिता की चिल्लाहट की गूंज बच्चों के कान में कम, बल्कि उनके दिमाग पर अधिक असर डालती है। उनके मन में एक भय की रेखा खींच जाती है और वे कल्पना करने लगते हैं कि कहीं मां-पिता उन्हें छोड़कर अन्यत्र न चले जाएं। ऐसी कुछ घटनाएं होती भी हैं। बाल मन का अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि इस स्थिति में बच्चे नकारात्मकता के शिकार हो जाते हैं और उनकी पढ़ाई-लिखाई प्रभावित होती है। बच्चों के सामने मां-पिता की अस्वस्थ बहस उनकी सुरक्षा की भावना को खतरे में डालती है, जिसके कारण व्यवहार- कौशल को प्राकृतिक आचरण नहीं मिलने से बच्चे का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

आपस में लड़ाई में व्यस्त माता-पिता को यह ज्ञात नहीं हो पाता कि उनके इस आचरण से बच्चों में अपराध बोध में वृद्धि और आत्मविश्वास की कमी होने लगती है । उक्त हालात में बच्चे मां-पिता की उग्रता को भी सीखते हैं जो धीरे-धीरे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करते हुए उसे तुनकमिजाज बना देता। इस हालत से अक्सर गुजरने के कारण जब बच्चे अपनी वर्तमान वास्तविकता से असहज और असामान्य होते हैं तो वे दयनीय अवस्था धारण कर आत्महीनता और अंतर्मुखी बन जाने के शिकार होते हैं। सबसे खराब प्रभाव यह पड़ता है कि बच्चे भय के कारण अपने मां- पिता से खुलकर बात करने की मनोदशा से मुक्त होकर झूठ बोलने के सहारे से बंध जाते हैं और उनका कोमल बचपन कहीं खो जाता है । बड़े होकर यही बच्चे घर के प्रतिकूल माहौल के चलते अपने साथियों की शरण में जाकर विभिन्न किस्म की कुप्रवृत्तियों के संवाहक बनते हैं। गुमसुम होता बचपन

घर में परिवार के बीच या माता- पिता के विवाद से उत्पन्न स्थिति में बच्चों की चंचलता, उल्लास, बाल सुलभ गतिविधियां नेपथ्य नभ में विचरण करने लगते हैं। चूंकि घर- आंगन बच्चों की प्राथमिक पाठशाला है, जहां वे अच्छी-बुरी आदतों को ग्रहण करते हैं, इसलिए ज्यादातर बच्चे अपने अभिभावक की गलत हरकतों से समाज के अन्य अपनाने योग्य अच्छी आदतों से वंचित भी हो जाते हैं । स्नेह, वात्सल्य और समुचित देखभाल की प्राकृतिक जिम्मेवारी से मुक्त होने के कारण बहुत सारे बच्चे वर्तमान समय में मोबाइल में अपना भविष्य तलाशने लगते हैं। उनकी नींद के साथ-साथ पढ़ाई और भूख भी किसी न किसी रूप में प्रभावित होती है। सवाल है कि इस प्रतिकूल दिशा और दशा की ओर प्रस्थान करते किशोर के भविष्य को कैसे संभाला जाए। इसके लिए मुख्य उत्तरदायित्व बच्चों के मां-पिता का ही है । दुर्गति की ओर जाती नव-संतति को अगर उनके माता-पिता अपने अहम और क्रोध को नियंत्रित कर सामान्य दांपत्य जीवन नहीं जिएंगे, तब तक दुनिया की कोई ताकत इस पीढ़ी को बचाने में असमर्थ होगी। परिवार की बिखरती पाठशाला के दुष्परिणाम जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा रहा है, जिसकी रक्षा में मुख्य रूप से माता- पिता को सामने आकर आपसी मतभेद और कटुता का विसर्जन करने की जरूरत है। उन्हें यह खयाल रखना चाहिए कि उनके आचरण उनके घर-आंगन की वाटिका के बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेल रहे हैं। गुमसुम होता बचपन

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट