अंबुज कुमार
प्रकृति के सबसे निकटता का त्यौहार छठ है। यह जबसे मनाई जाती रही हो, लेकिन आज भी उसी मूल रूप में मन रही है। भले ही साधन, सुविधाएं,सोच बदल गई, लेकिन इस पर्व के स्वरूप में बदलाव नहीं हुआ। चुन बिनकर चावल, गेंहू की जांता चक्की में शुद्धता के साथ पिसाई,ईख,फल,ठेकुआ, कसार आदि अभी भी अपने मूल स्वरूप में विद्यमान दिखता है। प्रसाद बनाने में गुड़ का प्रयोग इसकी प्राचीनता और शुद्धता का प्रतीक है।माताएं जो पचास साल पहले छठ करती थीं,उसी रूप में आज उनकी बेटी, पूतोह,नाती,नतिनी भी करती हैं। हां, पहले कष्ट ज्यादा था,क्योंकि पैदल ही जाना पड़ता था। आज गाड़ियों के प्रयोग से समय और श्रम की बचत हुई है। छठ: बिहार की सांस्कृतिक पहचान
इस पर्व का इतिहास क्या है,ये तो कहना मुश्किल है,, लेकिन सिंधु सभ्यता में भी वायु,जल,सूर्य जैसे प्रकृति की आराधना का जिक्र मिलता है। सबसे प्रमुख बात है कि इसमें ब्राह्मणवाद का आरोप नहीं दिखता है, जैसे कि अन्य वैदिक अनुष्ठानों में होता है। हम तो किसी भी मौलिक त्योहारों में इसका आक्षेप कम ही देखते हैं। इसमें नहाए खाए से लेकर अंतिम अर्घ्य तक व्रती स्वयं ध्यान केंद्रित कर सूर्य की पूजा संपन्न करते हैं। इसके मूल में सूर्य उपासना ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत समय के बाद षष्ठी तिथि होने के कारण छठी मईया का जिक्र कर दिया गया हो। कालांतर में राजाओं ने जनता की भावनाओं के मद्देनजर सूर्य मंदिर का निर्माण करा दिया। हर समय की सरकारें इन भावनाओं का सम्मान करती हैं। आज भी सरकारें और नागरिक संगठन इसमें सक्रिय दिखते हैं।
छठ पूजा आज बिहार की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है। बिहार या बिहार से बाहर बसे बिहारियों ने एकजुटता के साथ इस पर्व को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान बना दिया है। इन चार दिनों में बिहार के निवासी अलग लोक में विचरण करने लगते हैं। इस अवसर पर गाए जाने वाले लोक गीतों ने इसकी मिठास को बढ़ा दिया है। बेटा के साथ बेटी की मांग, पढ़ल दामाद की मांग, नैहर और ससुराल दोनों जगहों पर भरे पूरे परिवार के साथ सुख समृद्धि की कामना हमारे अंतर्मन को छू जाती है। इन गीतों में लोक संस्कृति, संस्कार,त्याग, समर्पण के भाव प्रकट होते हैं। इसने लोक गायकों और गायिकाओं को उर्वर धरातल प्रदान करने का काम किया है। लगता है कि शायद जब तक सृष्टि कायम रहेगी, तब तक यह पर्व अपने मूल स्वरूप में विद्यमान रहेगी।
आलोचना कि बात है कि व्रत समाप्ति के बाद हर जगह कचड़ों के ढेर लग जाते हैं। हम सफाई की संस्कृति को हमेशा नहीं रख पाते हैं। इस पर हमें सोचने की जरूरत है। दूसरी बात कि बिहार आने वाली ट्रेनों में बदइंतजामी हमारी प्रतिष्ठा को धूमिल कर देती है। ट्रेनों में बैठे बिहारियों की पीड़ा देखकर मिजाज सहम जाता है। ऐसा लगता है कि स्पेशल ट्रेनें ऊपर ऊपर ही उड़ जाती हैं या केवल सरकार की फाइलों में ही रह जाती हैं। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। छठ: बिहार की सांस्कृतिक पहचान