शिवकुमार
अक्टूबर का महीना था। तिथि थी दो अक्टूबर 1921। उन दिनों देश में विदेशी कपडों की होली जलायी जा रही थी। गॉंधी इस समय कुर्ता और टोपी पहनते थे। जब वे बारीसाल गये थे तो वहॉं की अकालपीडित खुलना नामक बस्ती में पहुंचे तो अकालपीडितों ने ताना मारते हुए कहा कि यहॉ हम मर रहे हैं और आप विदेशी वस्त्र जलाने में लगे हैं। गॉंधी अपनी वेशभूषा पर विचार करने लगे।यों एकाध बार मदुरा में, मद्रास में यह विचार आया था,लेकिन वे इस पर अमल नहीं कर पाये थे।
विदेशी कपडों को बिना हटाये खादी कपडों की स्थापना नहीं हो सकती थी।भारत में करोडों किसान सिर्फ लंगोटी में ही रहते थे।गॉंधी को उनके पास जाना था तो उन्होंने लंगोटी में ही रहने का निश्चय किया और तब कहना शुरू किया-“ अगर आपको खादी न मिले तो लंगोटी पहनकर ही रहिए, किन्तु विदेशी कपडे को तो उतार ही फेंकिए।” गॉंधी इस तरह के दृढनिश्चयी थे।
जो कहते थे, वे करते थे और जो करते थे, वे कहते थे। आंखें खुली हुई थीं और अपने आपको बदलने के लिए तैयार रहे थे। 6 अक्टूबर 1921 को हिन्दू धर्म पर एक लंबा लेख यंग इंडिया में लिखा जिसमें उन्होंने लिखा-“ मैं वर्णाश्रम धर्म के उस रूप में विश्वास करता हूं ,जो मेरे विचार से विशुद्ध वैदिक है, लेकिन उसके आजकल के लोक- प्रचलित और स्थूल रूप में मेरा विश्वास नहीं है। गॉंधी वैदिक धर्म वाले वर्णाश्रम को मानते थे और उन्हें यह भी लग रहा था कि समाज में जो वर्णाश्रम का रूप प्रचलित है, वह विकृत हो गया है।
गॉंधी अब तक खानपान और विवाह को वर्ण तक ही सीमित रखा था।इस लेख में वे हिलते हुए नजर आते हैं।वे लिखते हैं-“ मैं नहीं मानता कि दूसरी जातिवालों के साथ खाने पीने या विवाह संबंध करने से किसी का जन्मत: प्राप्त दर्जा छिन ही जाता है।चार वर्ण लोगों के व्यवसायों को निर्धारित करते हैं, वे सामाजिक समागम प्रतिबंधित या नियमित नहीं करते।”
गॉंधी अब भी वर्णाश्रम को मानते थे, लेकिन उन्हें इस पर संदेह होने लगा था।इस लेख में दो तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं।एक – उन्होंने माना कि ब्राह्मण शारीरिक श्रम से मुक्त नहीं है और शूद्र को ज्ञान से दूर नहीं रखा जा सकता।दूसरे- हिन्दू धर्म में किसी को बडा और किसी को नीचा मानना अप्राकृतिक है।तीसरे-दूसरे वर्णों के साथ खानपान और वर्णेतर शादी वर्णाश्रम धर्म में रोक नही है।वे लिखते हैं-“ सच्चे हिन्दू की पहचान तिलक नहीं है, मंत्रों का सही उच्चारण नहीं है, तीर्थाटन नहीं है और न जाति- पॉंति के नियमों और बंधनों का सूक्ष्म पालन ही ।
साथ ही यह भी लिखा है कि विभिन्न वर्णों के लोगों के आपस में खान-पान और शादी- विवाह का संबंध रखने से यद्यपि वर्णाश्रम धर्म में कोई बाधा नहीं पहुंचती, तथापि हिन्दू धर्म ऐसे संबंधों का तीव्र विरोध करता है।नवम्बर, 1921 में गुजरात के गोधरा के अन्त्यज आश्रम से गॉंधी जी को एक ह्रदयविदारक पत्र आया जिसमें एक अन्त्यज बालक का जिक्र था, जिसे इसलिए पीटा गया, क्योंकि उसने जूठा अन्न खाने से इंकार कर दिया था ।
6 नवम्बर 1921 के नवजीवन के अंक में उस पत्र का जिक्र करते हुए गॉंधी ने लिखा-“ इस पत्र को पढकर हर हिन्दू का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए।इस बालक को मार पडी , इसके लिए उसके मॉं- बाप उत्तरदायी नहीं हैं, हम हैं।हमने अन्त्यज का तिरस्कार किया, उन्हें अपना जूठा और सडा हुआ अन्न खाने के लिए दिया और यह माना कि हमने पुण्य किया है।हमने उन्हें कम से कम वेतन दिया है और उन्हें भीख माॉंगने पर विवश किया है।हमने उनसे अपना कचरा न सिर्फ उठवाया, उन्हें कचरा खिलाया भी।
अपनी उतरन को उनका श्रृंगार बनाया।परिणाम यह हुआ कि अब अन्त्यज वर्ग भीख मॉंगकर खुश होता है, जूठा भोजन पाकर गर्व का अनुभव करता है।सडा हुआ अनाज जब उनके घर में आता है तो उनके बच्चे खुशी से नाचते हैं।” अंत में गॉंधी ने अन्त्यजों से अपील की-“ वे जूठा और सडा हुआ अनाज अथवा मॉंस न लेने और न खाने का निश्चय करें और अपने बच्चों को, उनके लिए जो राष्ट्रीय स्कूल खोले जायें, उनमें भेजें।”