भागवत किसी की बपौती नहीं

45
इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण
इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण

इटावा में जाति के नाम पर धर्म का अपमान, सनातन परंपरा हुई शर्मसार। जब धर्म और जाति के बीच की रेखाएं धुंधली हो जाती हैं, तब अक्सर धर्म की आड़ में अधर्म फलने लगता है। उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से हाल ही में सामने आई घटना न केवल एक निर्दोष भक्त का अपमान है, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा—समभाव और सहिष्णुता—पर सीधा प्रहार है। यह घटना कोई अपवाद नहीं, बल्कि उस सोच की अभिव्यक्ति है जो आज भी धर्म को जाति की जंजीरों में जकड़े रखना चाहती है।

मनुवाद की ओर बढ़ता समाज…!

यह एक ऐसी कथा है जो हमें बताती है कि समाज जब अपने मूलभूत मानवीय मूल्यों से हटकर वर्ण, जाति और ऊँच-नीच के पुराने साँचे में लौटने लगता है, तो उसका पतन कैसे सुनिश्चित हो जाता है।“जो समाज अपनी ही संतानों को पैरों में रखता है, वह कभी ऊँचा नहीं उठता। याद रखो—जितना बड़ा मनु नहीं था, उससे बड़ा भारत है। भारत का संविधान तुम सबका है, मनु का नहीं।”समाज जब अपने मूलभूत मूल्य—समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व—को भूलकर पुरानी वर्ण-व्यवस्था की ओर लौटता है, तो वह मनु की सत्ता में, पर मानवता की हार में बदल जाता है।इसलिए समय रहते चेतना ज़रूरी है, वरना… “मनु की लकीर में बंधा समाज, कभी उड़ान नहीं भरता!”

भागवत किसी की बपौती नहीं


ना जनेऊ की शर्त, ना कुल की रेखा, श्रीकृष्ण की कथा सबको है एक-सा देखा।

श्लोक समझे जो दिल से, वही सच्चा ज्ञानी, जात-पांत की दीवारें – बस हैं मन की कहानी।

भक्ति हो सच्ची, हो नीयत साफ, तो भागवत सबका – ना छोटा, ना खास।

धर्म न बँटे बपौती में, यह सबका अधिकार है, जिसने भी खोला मन का द्वार, वही भागवत का उत्तराधिकारी है।

“भागवत पर सबका अधिकार है – किसी वर्ग विशेष का नहीं”

भागवत कथा उन सामाजिक दीवारों को तोड़ने की कोशिश है, जो यह मान बैठी हैं कि धर्मग्रंथों का अधिकार केवल कुछ “चुने हुए” लोगों का है, बाकी तो केवल श्रोता हैं, सेवक हैं या निम्न कोटि के प्राणी। परंतु क्या वास्तव में ऐसा है? क्या श्रीकृष्ण का ज्ञान किसी जाति-विशेष के लिए था?

“शूद्र की भागवत कथा”

पुराने समय की बात है। एक गाँव था—नाम था धर्मपुर। वहाँ एक गरीब दलित युवक था, कबीरू। नाम तो कबीर जैसा ही था, और आत्मा भी। वह बाल्यकाल से ही कृष्ण-लीला का गायक था। उसने कहीं कोई गुरुकुल नहीं देखा, न संस्कृत सीखी, न पंडितों की डिग्रियाँ लीं—पर श्रीकृष्ण की भक्ति उसके रोम-रोम में बसी थी।

वह भागवत कथा गाता, गाँव की गलियों में। उसकी मधुर आवाज़ में भाव की गहराई थी। लोग सुनते और रो पड़ते। लेकिन एक दिन, गाँव के एक ब्राह्मण पंडित ने रोष से कहा—“ये नीच जाति का व्यक्ति क्या भागवत का पाठ करेगा? भागवत तो हम ब्राह्मणों की थाती है।” गाँव में विवाद हुआ। कबीरू से कथा करने का अधिकार छीन लिया गया।

ईश्वर की परीक्षा

कबीरू दुखी होकर गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठा और रोते-रोते श्रीकृष्ण को पुकारने लगा—”हे नंदलाल! क्या तू भी जात देखता है? क्या तेरा प्रेम भी ऊँच-नीच में बंटा है..?”

उस रात गाँव में अद्भुत घटना घटी। पंडित के घर की भागवत पुस्तक अपने-आप हवा में उड़कर कबीरू के पास आ गई। सुबह लोग दौड़े-दौड़े पहुँचे, देखा—कबीरू ने आँखें बंद कर ली हैं और श्रीकृष्ण की कथा सुना रहा है। आँखों से आँसू बह रहे हैं, और गाँव के पक्षी, पशु, मनुष्य—सभी मंत्रमुग्ध हैं। पंडित भी आया—गर्व टूट चुका था। उसने कबीरू के चरणों में सिर रखकर कहा— “मुझे क्षमा कर दो। मैंने धर्म को बपौती समझ लिया था, लेकिन तुमने सिद्ध कर दिया कि जहाँ प्रेम है, वहीं भागवत है।”

भागवत – श्रीकृष्ण की लीला – केवल किसी वर्ण विशेष की संपत्ति नहीं। यह हर उस हृदय की धरोहर है जहाँ भक्ति है, करुणा है और आत्मा की पुकार है। श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में दिया था—किसी यज्ञशाला में नहीं। उन्होंने चांडाल को भी गले लगाया था, गोवर्धन पूजा में ग्वालों संग नृत्य किया था। धर्म का द्वार सबके लिए खुला है। भागवत पर सबका अधिकार है, चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग, लिंग या स्थिति का हो।

भागवत पर सबका अधिकार
  1. जाति नहीं, भक्ति का आधार – भागवत सबके लिए अपार!
  2. कृष्ण की कथा सबकी है थाती, न ऊँच-नीच, न कोई जाति।
  3. भागवत को मत बनाओ बपौती, यह प्रेम की है वास्तविक ज्योति
  4. श्रीकृष्ण का प्रेम नहीं देखता वंश, वो है हर हृदय का अंश।
  5. शास्त्रों पर अधिकार सबका है, जो भी दिल से उसका भक्त है।
  6. जो बोले ‘भागवत बस मेरी’ – वो है अज्ञान की फैली देरी।
  7. संविधान कहे – समान अधिकार, धर्मग्रंथ भी दें यही उपहार।
  8. कथा में ना हो भेदभाव, श्रीकृष्ण का यही सच्चा भाव।
  9. भक्ति हो जहाँ सच्ची-निर्मल, वहीं उतरती है श्रीहरि की पहल।
  10. भागवत को बांटना पाप है, इसे अपनाना आपसी आप है।

इटावा में जाति के नाम पर धर्म का अपमान: सनातन परंपरा हुई शर्मसार

“जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण !”

“सनातन परंपरा को लगा जातिवादी धब्बा!”

“इटावा में जातिवाद की आड़ में धर्म का अपमान – सनातन लज्जित!”

“धर्म की आड़ में जाति की जंजीरें – कब टूटेगा यह दंभ?”

“जाति के नाम पर सनातन की मर्यादा तार-तार!”

“जहाँ धर्म छोटा और जाति बड़ी हो जाए – वह कलंक है सनातन पर!”

“इटावा में ब्राह्मणवाद नहीं, सनातन का स्वाभिमान रोया!”

सनातन धर्म की मूल भावना

सनातन धर्म की नींव वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः और अहिंसा परमो धर्मः जैसे सिद्धांतों पर टिकी है।

  • क्या श्रीराम ने शबरी के झूठे बेर खाने से पहले उसकी जाति पूछी थी?
  • क्या श्रीकृष्ण ने विदुर के घर भोजन करते समय कुल देखा था?
  • क्या संत रविदास, कबीर, अवधूत नित्यानंद, साईं बाबा ने कभी धर्म को जाति से जोड़ा?

नहीं। क्योंकि सनातन का स्वरूप समावेशी है—उसमें कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई छोटा-बड़ा नहीं।

जातिवाद धर्म नहीं, ढोंग है:

जातिवाद उन लोगों का औजार है जो धर्म को सत्ता और विशेषाधिकार की ढाल बनाना चाहते हैं। यह मनुवादी सोच न तो धर्म के अनुरूप है, न ही संविधान के। भारत का संविधान हर नागरिक को समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। फिर धर्मस्थलों में यह भेदभाव क्यों..?

समाज को आईना दिखाने का समय:

इस घटना ने फिर दिखा दिया कि कई स्थानों पर मंदिरों में आज भी वर्णव्यवस्था के नियम लागू हैं, और पुजारीगण अपने आपको भगवान से भी ऊपर मानते हैं। यह न केवल संविधान का अपमान है, बल्कि सनातन धर्म के आदर्शों की खुली अवमानना भी है।

इटावा की घटना एक चेतावनी है—अगर धर्म के नाम पर जातिवाद फैलता रहा, तो सनातन की आत्मा मर जाएगी।
हमें यह समझना होगा कि: “धर्म जाति से नहीं, श्रद्धा से बड़ा होता है।” “भगवान सबके हैं – उनके मंदिर भी सबके हैं।”

अब वक्त है सनातन धर्म की गरिमा बचाने का, न कि उसका उपयोग वर्चस्व स्थापित करने के लिए।

आग्रह: समाज को जागना होगा। मंदिरों के दरवाजे सबके लिए खुलें, कथा सबके लिए हो, पूजा पर सबका समान अधिकार हो—तभी सच्चा सनातन धर्म जीवित रहेगा।