आजाद हिन्द फौज के सेनानी

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आजाद हिन्द फौज के सेनानी
आजाद हिन्द फौज के सेनानी

वीरेन्द्र सिंह परिहार

द्वितीय विश्व युद्ध में सिंगापुर अंग्रेजों का बड़ा गढ़ था। वहां 40 हजार हिन्दुस्तानी सैनिक जापानियों के युद्धबंदी बने। भारतीय क्रान्तिकारियों ने जिनमें रामबिहारी बोस प्रमुख थे, यह प्रस्ताव रखा कि इन सैनिकों को समझा-बुझाकर एक आजाद हिन्द फौज बनायी जाए जो भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने के लिए लड़े। 15 दिसम्वर 1942 की बात है अंग्रेजों को हिन्दुस्तानी सेना के तीन अफसर भूखे-प्यासे जान बचाने के लिए मलाया के जंगलों में भटक रहे थे इनमें एक जनरल मोहन सिंह भी थे। उनकी भेंट एक जापानी अफसर से हो गई। उसने कहा हम अंग्रेजों को एशिया से निकालकर बाहर करना चाहते हैं। एशिया, एशिया वालों का है, गोरे लोगों का यहां क्या काम? हम हिन्दुस्तान को मित्र बनाना चाहते हैं। आपके प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस आजाद हिन्द फौज बनाने में जुटे हैं। रामबिहारी बोस से मुलाकात होने पर लम्बे सोच-विचार के बाद यह तय हुआ कि आजाद हिन्द फौज बनायी जानी चाहिए।

उनके साथ 54 साथियों ने आजाद हिन्द फौज बनाकर देश की आजादी के लिए मर-मिटने की शपथ ली। कैप्टन मोहन सिंह को इस फौज का प्रधान सेनापति बनाया गया। पर जापानी भी हिन्दुस्तानी सैनिकों को उसी तरह तोप का चारा बनाना चाहते थे, जैसे अंग्रेज बनाते रहे थे, इसपर मोहन सिंह ने कहा कि आजाद हिन्द फौज आजाद फौज है। यदि वह आजाद नहीं रही तो भंग कर दी जाएगी। जापानियों ने इसी प्रश्न पर मोहन सिंह को जेल में डाल दिया। जनरल मोहन सिंह ने आजाद हिन्द फौज को भंग कर दिया। बाद में पनडुब्बी द्वारा नेता जी सुभाष जर्मनी से जापान पहंुचे। वह मोहन सिंह से मिले। आजाद हिन्द फौज का पुनः गठन किया गया। बाद में जापानी सेना और आजाद हिन्द फौज का तालमेल काफी संतोषजनक रहा। इम्फाल मोर्चे पर दोनों ने अद्भुत वीरता दिखाई। पर अंत में हार का मुॅह देखना पड़ा। आजाद हिन्द फौज के सेनानी

आजाद हिंद संघ की एक महिला शाखा बनाई गई और एम.ए. चिदम्बरम उसकी पहली अध्यक्ष चुनी गईं। सैनिकों की कमी को देखते हुए एक दिन नेता जी सुभाष ने चिदम्बरम और डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन के सामने आजाद हिन्द फौज में एक महिला रेजीमेंट बनाने का सुझाव रखा। वे जोश से भरे दिन थे। चिदम्बरम और डॉ. लक्ष्मी तुरंत पास के महिला क्लब में गईं। वहां बहुत सी लड़कियॉ खेलकूद के लिए एकत्र हुई थी, उनके सामने फौज में भर्ती होने का सुझाव रखा गया तो वे इतनी प्रसन्न हुईं कि तुरंत भर्ती होने को तैयार हो गईं। डॉ. लक्ष्मी ने एक कागज पर भर्ती के लिए इच्छुक लड़कियों के नाम लिखे और उनके सामने हस्ताक्षर करने को कहा। इसी समय किसी ने सुझाव दिया कि आजाद हिन्द फौज की भर्ती के कागज पर स्याही से नहीं, खून से हस्ताक्षर होने चाहिए।

सबने एक स्वर में कहा- हाँ-हाँ, खून से हस्ताक्षर होने चाहिए। डॉ. लक्ष्मी ऑपरेशन का चाकू ले आईं। उँगली में हल्का सा चीरा देकर खून में उस सेना के वचन-पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। इस महिला रेजीमेंट का नाम सन् 1857 के महासंग्राम की रानी लक्ष्मीबाई के नाम पर ‘रानी झांसी रेजीमेंट’ रखा गया। यह संयोग था कि इस रानी झांसी का पहला कमांडर डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन को बनाया गया। यद्यपि नेता जी ने कहा कि ‘जब तक एक भाई भी जीवित है, तब तक कोई बहिन मोर्चे पर नहीं भेजी जाएगी। इम्फाल से वापस लौटते समय आजाद हिन्द फौज और जापानी सेनाएॅ बहुत अस्त-व्यस्त होकर पीछे हटी थीं। कर्नल लक्ष्मी भी शत्रु सेना द्वारा पकड़ ली गईं। उनके स्थान पर कुमारी जानकीबाई थिंवर्स को रानी झांसी रेजीमेंट का कमांडर बनाया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लीबिया में जर्मनी के फील्ड मार्शल रोमेल ने सन् 1941 में जोरदार आक्रमण करके अंग्रेजी सेनाओं पर ऐतिहासिक विजय प्राप्तकर हजारों सैनिकों को बंदी बना लिया था। इनमें अधिकतर हिन्दुस्तानी देशी सैनिक थे। नेता जी सुभाष ने इन सैनिकों में से कुछ को समझा-बुझाकर अपने देश की स्वाधीनता के लिए लड़ने को तैयार किया था। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का त्याग, शौर्य, निर्भीकता, बलिदान की भावना किसी से कम नहीं थी। वे लड़ते हुए इम्फाल तक पहंुच गए थे। परन्तु तभी जापान पर अमेरिका ने दो परमाणु बम गिराकर युद्ध समाप्त कर दिया, जापान के साथ ही आजाद हिन्द फौज भी हार गई। इम्फाल तक आने और वहां से वापस लौटने में आजाद हिन्द फौज के दस हजार सैनिकों ने प्राण न्योछावर किए थे। कई सैनिक अंग्रेजों द्वारा पकड़े भी गए, इनमें सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज प्रमुख थे। ‘लाल किले से आई आवाज सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज’ यह नारा जिसे नवम्वर 1945 में बच्चे दिल्ली की गली-गली में लगा रहे थे। मेजर जनरल शाहनवाज, कर्नल प्रेम कुमार सहगल और कर्नल गुरुबख्स सिंह ढिल्लन आजाद हिन्द फौज के नेता इसलिए विख्यात हो गए कि अंग्रेजी सरकार ने इन तीनों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने का निश्चय किया था। ये तीनों एक प्रकार से आजाद हिन्द फौज के प्रतिनिधि मान लिए गए थे। भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सयू, आसफ अली जैसे प्रसिद्ध वकील इन वीरों के बचाव में आ खड़े हुए थे।

यह मुकदमा 5 नवम्वर 1945 को दिल्ली के लाल किले से शुरु हुआ और 31 दिसम्वर 1945 को समाप्त हुआ। यह एक सैनिक न्यायालय था। इसके द्वारा किए गए निर्णय की अभिपुष्टि भारत के प्रधान सेनापति द्वारा की जाती थी। अभियुक्तों पर आरोप था कि उन्होंने सितम्वर 1942 से 26 अप्रैल 1945 तक भारत के महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध किया। यद्यपि तीनों अभियुक्तों ने इन अभियोगों को अस्वीकार किया और साथ ही कहा कि यह न्यायालय गैर कानूनी है और इसे मुकदमें सुनने का अधिकार नहीं है। सरकार की ओर से तीन गवाह पेश किए गए। कैप्टन शाहनवाज ने अपने बयान में बताया कि मेरे सामने सम्राट या अपने देश में से एक को चुनने का प्रश्न था? मैंने अपने देश के प्रति निष्ठा को चुना, मैने नेता जी को वचन दिया था कि आवश्यकता पड़ी तो मैं देश के लिए जान भी दे दूंगा। मैंने युद्ध में भाग लिया है, परन्तु वह युद्ध अपने देश की आजादी के लिए था। मैंने आजाद हिन्द सरकार की उस नियमित सेना के सदस्य के रुप में युद्ध किया है, जो अपने देश की आजादी के लिए लड़ रही थी। इसलिए मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है, जिसके लिए मुझ पर सैनिक या किसी अन्य न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सकता था।

कैप्टन प्रेम कुमार सहगल ने अपने बयान में कहा- मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है, जैसा कि मुझ पर आरोप लगाया गया है। मैं किसी स्वार्थ से या जापानियों के दुर्व्यवहार से तंग आकर आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित नहीं हुआ। मैं इसमें केवल इसलिए भर्ती हुआ कि मैं अपने देश को स्वतंत्र कराना चाहता था। मैंने आजाद हिन्द फौज की अंतरिम सरकार की नियमित और व्यवस्थित सेना के सदस्य के रुप में युद्ध में भाग लिया है और जी-जान से अपने देश की सेवा की है। लेफ्टिनेंट गुरुबख्श सिंह ढिल्लन ने भी लगभग ऐसा ही बयान दिया। बचाव पक्ष के वकीलों का नेतृत्व करते हुए भूलाभाई देसाई ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय कानून में यह मान लिया गया है कि किसी भी विदेशी सत्ता की आधीनता से छुटकारा पाने के लिए संगठन और सेना बनाना वैध कार्य है। जो लोग अपने देश की स्वाधीनता के लिए सेना बनाकर लड़ रहे हैं, उनको विदेशी राजा के प्रति भक्ति रखने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अंतरिम आजाद हिन्द सरकार विधिवत स्थापित और उद्घोषित सरकार थी। इसे अनेक देशों ने मान्यता दी थी। इसे राज्य का दर्जा था। इस राज्य की एक सेना थी। इस सेना का उद्देश्य भारत, बर्मा तथा मलाया के लोगों को विदेशी शासन से छुड़ाना था। ऐसी दशा में इस सेना के सैनिकों द्वारा किए गए कार्य नागरिक कानून की परिधि में नहीं आते।

31 दिसम्वर 1945 को न्यायालय ने अपना निर्णय दिया और वह प्रधान सेनापति द्वारा पुष्ट किए जाने के बाद 3 जनवरी 1946 के विशेष गजट में प्रकाशित हुआ। तीनों अभियुक्त सम्राट की सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के दोषी पाए गए। लेफ्टिनेंट ढिल्लन को हत्या करने के और कैप्टन शाहनवाज को हत्या के लिए उकसाने का दोषी भी पाया गया। सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने की सजा मृत्यु या आजीवन कारावास है। इसलिए न्यायालय तीनों अभियुक्तों को आजीवन कालेपानी की, नौकरी से हटा देने, सारे वेतन और बकाया देय राशियों को जब्त करने की सजा देता है। यदि इन सजाओं को कार्यान्वित किया जाता, तो भारत में भारी उत्पात मच जाता। इंग्लैण्ड की आर्थिक और सैनिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः प्रधान सेनापति ने तीनों पर से आजीवन कालेपानी की सजा हटा ली। केवल नौकरी से हटाने और बकाया वेतन आदि जब्त करने की सजाए बनी रही। यह आश्चर्यजनक बात है कि देश स्वतंत्र हो जाने पर भी हमारे नेता आजाद हिन्द फौज के इन वीर बलिदानी सैनिकों को सेना में उनके पूर्व पदों पर बहाल नहीं करवा पाए। इस तरह से अंग्रेजों ने भले सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज को क्षमा कर दिया हो, परन्तु स्वतंत्र भारत के सत्ताधीशों ने आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को क्षमा नहीं किया। कहॉ तो उनके त्याग और सैनिकों का विशेष सम्मान किया जाना चाहिए था, परन्तु उन्हें उनके पदों पर बहाल तक नहीं किया गया। तर्क यह दिया गया कि सरकार सेना में विद्रोह की परम्परा को प्रश्रय नहीं देना चाहती। आजाद हिन्द फौज के सेनानी