बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड

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बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड
बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड
डॉ.सत्यवान सौरभ
डॉ.सत्यवान सौरभ

‘तृतीय परमाणु युग’: बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड। बदलती दुनिया हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या हम एक समावेशी, न्यायपूर्ण और स्थायी वैश्विक व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, या केवल शक्ति संतुलन के नए रूप देख रहे हैं? जब तक हम नैतिक मूल्यों, पारदर्शिता और सहयोग के साथ आगे नहीं बढ़ते, तब तक वैश्विक मानदंड डगमगाते ही रहेंगे। बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड

रूस-यूक्रेन युद्ध, चीन की आक्रामकता और उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षणों के बीच दुनिया एक नए परमाणु युग में प्रवेश कर चुकी है। पुरानी संधियाँ निष्क्रिय हो रही हैं, और तकनीकी प्रगति जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता व हाइपरसोनिक मिसाइलें परमाणु जोखिम को बढ़ा रही हैं। इस युग में न केवल शक्ति-संतुलन अस्थिर है, बल्कि वैश्विक संस्थाओं की विश्वसनीयता भी संकट में है। भारत सहित वैश्विक दक्षिण को अब इस विमर्श में नैतिक नेतृत्व दिखाने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य केवल हथियारों से नहीं, सहयोग और विवेक से गढ़ा जाए।

जब 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरे, तो मानवता ने पहली बार अपनी ही बनाई शक्ति के विनाशकारी रूप को देखा। उसके बाद शुरू हुआ था पहला परमाणु युग—शीत युद्ध की संदेहपूर्ण रणनीतियों और ‘पारस्परिक सुनिश्चित विनाश’ जैसी सोच से भरा समय। फिर आया दूसरा परमाणु युग, जिसमें परमाणु हथियार अमेरिका और रूस से बाहर निकलकर भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, इज़राइल जैसे देशों तक पहुंचे। लेकिन अब, इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में, विशेषज्ञों का मानना है कि हम ‘तृतीय परमाणु युग’ में प्रवेश कर चुके हैं—एक ऐसा समय, जहां पुराने संतुलन और समझौते टूटते जा रहे हैं, और परमाणु हथियार फिर से वैश्विक राजनीति के केंद्र में आ खड़े हुए हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध ने इस नए युग की शुरुआत की घोषणा कर दी है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने खुलेआम परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी दी, जिससे पूरी दुनिया सकते में आ गई। यह पहली बार था जब किसी राष्ट्राध्यक्ष ने युद्ध नीति में परमाणु हथियारों को इतनी स्पष्टता से रखा। दूसरी ओर चीन ने ताइवान पर अपना दावा और कठोर किया है और अपने परमाणु भंडार का तीव्र आधुनिकीकरण कर रहा है। अमेरिका भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता और उसने भी अपने परमाणु हथियारों को तकनीकी रूप से उन्नत करने की प्रक्रिया तेज कर दी है। भारत और पाकिस्तान के बीच भी, बालाकोट और पुलवामा जैसे घटनाक्रमों के बाद, सीमाओं पर तनाव और ‘परमाणु विकल्प’ पर बहस बढ़ी है।

जब 1968 में परमाणु अप्रसार संधि अस्तित्व में आई, तब यह सोचा गया कि यह हथियार केवल पांच स्थायी शक्तियों तक सीमित रहेंगे और धीरे-धीरे उनका पूर्ण उन्मूलन होगा। लेकिन हकीकत इससे ठीक उलट है। आज भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और इज़राइल जैसे देश संधि के बाहर रहकर भी परमाणु शक्ति से लैस हैं और इसे राष्ट्रीय गौरव का विषय मानते हैं। इसके साथ ही जो संधियाँ कभी परमाणु हथियारों पर नियंत्रण की रीढ़ मानी जाती थीं—जैसे कि मध्यम दूरी की परमाणु संधि और नया सामरिक हथियार संधि—या तो समाप्त हो चुकी हैं या निष्क्रिय हो गई हैं।

विकसित देश, जो खुद इन घातक हथियारों से लैस हैं, विकासशील देशों से निरस्त्रीकरण की अपेक्षा रखते हैं लेकिन स्वयं इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इससे वैश्विक मंच पर एक प्रकार की दोहरी नीति दिखाई देती है, जो न केवल इन समझौतों की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाती है, बल्कि विकासशील देशों में असंतोष भी पैदा करती है।

कभी ‘परमाणु निवारण’ की नीति ने दो महाशक्तियों को सीधे युद्ध से रोके रखा था, लेकिन आज की बहु-ध्रुवीय दुनिया में यह सोच अब कमज़ोर होती दिख रही है। आज के विश्व में जहां निर्णयकर्ता नेता अधिक अस्थिर, अनिश्चित और राष्ट्रहित की आक्रामक व्याख्या करने वाले हैं, वहां यह नीति कितनी प्रभावी है, यह एक बड़ा प्रश्न बन चुका है। उत्तर कोरिया का लगातार मिसाइल परीक्षण करना, चीन द्वारा सैकड़ों नए मिसाइल प्रक्षेपण स्थल बनाना और रूस द्वारा बेलारूस में परमाणु हथियारों की तैनाती—ये सभी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि परंपरागत निवारण नीति अब खंडित हो रही है।

इस युग की एक अन्य विशिष्टता यह है कि अब परमाणु हथियार अकेले नहीं हैं। इनके साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अतिशीघ्र गति से चलने वाली मिसाइलें, साइबर युद्ध और स्वचालित ड्रोन प्रणाली भी जुड़ चुकी हैं। अमेरिका और चीन जैसे देश अपने परमाणु निर्णय प्रणाली में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को जोड़ने की दिशा में काम कर रहे हैं। यह तकनीक एक ओर जहां तुरंत निर्णय लेने की क्षमता बढ़ा सकती है, वहीं दूसरी ओर किसी तकनीकी त्रुटि या साइबर हमले से अनायास ही परमाणु युद्ध छिड़ने की आशंका को भी जन्म देती है। बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड

भारत की स्थिति इस बदलती दुनिया में विशेष रूप से विचारणीय है। भारत ने अब तक ‘पहले प्रयोग नहीं करने’ की नीति अपनाई है और परमाणु हथियारों के नैतिक उपयोग पर बल दिया है। लेकिन चीन की बढ़ती आक्रामकता और पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव के कारण भारत की परमाणु नीति की पुनर्समीक्षा की मांग अब उठने लगी है। यह बहस अब मुख्यधारा में है कि क्या ‘पहले प्रयोग न करने’ की नीति वर्तमान समय में व्यावहारिक और सुरक्षित है..?

परमाणु हथियारों का यह नया युग केवल महाशक्तियों की आपसी होड़ तक सीमित नहीं है। इसका असर पूरे वैश्विक दक्षिण पर भी पड़ता है। विकासशील देशों के लिए यह स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि इससे उनकी अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव आता है, वे कूटनीतिक रूप से अधिक अस्थिर होते हैं, और युद्ध के अप्रत्यक्ष परिणाम उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका के देश इन वैश्विक खतरों से चिंतित हैं क्योंकि यह उनके बुनियादी मुद्दों—जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और जलवायु संकट—को पीछे धकेल देता है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी जैसी संस्थाएं, जो कभी इन विषयों की संरक्षक मानी जाती थीं, अब प्रभावहीन होती दिख रही हैं। यूक्रेन युद्ध में सुरक्षा परिषद की निष्क्रियता और ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की सीमित पहुंच इस वैश्विक ढांचे की कमजोरियों को उजागर करती हैं। अगर इन संस्थाओं को समय रहते सशक्त नहीं किया गया तो भविष्य में इनकी भूमिका महज़ औपचारिक रह जाएगी।

ऐसे में विकल्प क्या हैं? सबसे पहले तो यह जरूरी है कि पूरी दुनिया में एक बार फिर परमाणु युद्ध के खतरों को लेकर जनचेतना जागृत हो। दूसरी बात, अब हमें पुराने दौर की संधियों से आगे बढ़कर नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जो आधुनिक तकनीक, नई सामरिक चुनौतियों और विविध शक्ति केंद्रों को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाएं। तीसरे, विकासशील देशों को भी अब इस विमर्श में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ताकि वैश्विक नैतिकता की परिभाषा केवल परमाणु संपन्न देशों की मोनोपॉली न रह जाए। और अंततः, युद्ध प्रणालियों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए एक वैश्विक आचार संहिता तैयार की जानी चाहिए।

‘तृतीय परमाणु युग’ केवल हथियारों का नहीं, मानसिकता का युद्ध भी है। यह उस भ्रम की ओर इशारा करता है कि तकनीक और शक्ति से ही शांति संभव है, जबकि इतिहास बार-बार यह सिखाता है कि स्थायी शांति केवल पारदर्शिता, विश्वास और सहयोग से ही आती है। आज जब परमाणु बटन मात्र एक व्यक्ति के निर्णय भर की दूरी पर है, और जब युद्ध की प्रणाली में स्वचालित निर्णय और अज्ञात खतरे जुड़े हुए हैं, तो यह सवाल फिर से हमारे सामने है—क्या हम वाकई विकास की ओर बढ़ रहे हैं, या उसी विनाश की ओर लौट रहे हैं जिससे पिछली सदी में हमने कठिनाइयों से खुद को निकाला था..? बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड