यह सारा संसार पंच तत्वों से बना है और इन पंच तत्वों के तीन गुण हैं- सतोगुण,रजोगुण और तमोगुण। किसी अमुक समय पर इन गुणों में से किसी एक गुण की हमारे जीवन और वातावरण में प्रधानता रहती है। यही तीन गुण हमारी चेतना की तीन अवस्थाओं- जागृत अवस्था, सुप्तावस्था और स्वप्नावस्था से भी संबंधित हैं। जब सतोगुण की हमारे शरीर और वातावरण में प्रधानता होती है तो हम प्रफुल्लित, हल्के-फुल्के, अधिक सजग व बोधपूर्ण होते हैं। रजोगुण की प्रधानता में उत्तेजना, विचार, इच्छाएं और वासनाएं बहुत बढ़ जाती हैं। बहुत कुछ करने की इच्छा होती है। हम या तो बहुत खुश या बहुत उदास होते रहते हैं।तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान, उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है तब मनुष्य तरह-तरह की आशाएं करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लग जाता है या फिर निद्रा, आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है।एक तमोगुणी व्यक्ति पर आलस, प्रमाद, लोभ जैसी वृतियां हावी रहती हैं, वह किसी ऐसी बुरी लत या आदत का शिकार हो जाता है जो उसके जीवन को अंधकारमय बना देती है। हर समय वासना, सम्भोग के बारे में सोचना। आवश्यकता से अधिक सोना,खाना इत्यादि ये सभी तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं। पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार
इसी भांति हमारे भोजन में यही तीन गुण विद्यमान रहते हैं और हमारा मन भी इन तीन गुणों से प्रभावित होता है। हमारे कृत्यों में भी इन्हीं त्रिगुणों की झलक देखने को मिलती है। जब सत्य की हमारे जीवन में प्रधानता होती है, तो रजोगुण और तमोगुण गौण हो जाते हैं, उनका प्रभाव कम रह जाता है और रजोगुण की अधिकता में सत्व और तमस गौण हो जाते हैं व तमोगुण के प्रधान होने पर सत्व और रजस पीछे रह जाते हैं, उनका प्रभाव कम हो जाता है। इन्हीं तीन गुणों के बल पर यह संसार और जीवन चलता है। पशु भी इसी प्रकृति से संचालित होते हैं परंतु उनमें कोई असंतुलन नहीं होता। न तो वे आवश्यकता से अधिक खाते हैं, न ही अधिक काम करते हैं और न ही अधिक काम वासना में उतरते हैं। उनमें कुछ भी कम या अधिक करने की स्वतंत्रता ही नहीं होती। मनुष्य कुछ भी करने को स्वतंत्र है। अच्छा या बुरा, कम या अधिक, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ ही उसको विवेक शक्ति भी प्राप्त है। स्वतंत्रता और विवेक दोनों ही उसके पास हैं। हम अधिक खाकर बीमार होने को भी स्वतंत्र हैं और ऐसे ही अधिक सो कर सुस्त और आलसी भी हो सकते हैं। हम किसी भी कार्य में आसक्त होकर या उसमें अति करके समस्याओं और बीमारियों को निमंत्रित कर सकते हैं। पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार
अब इन तीन गुणों में संतुलन कैसे रखा जाए
मनुष्य साधना,ध्यान और मौन के द्वारा इन तीन गुणों में संतुलन कर सकता है। इन सबसे हम अपने में सतोगुण को बढ़ा सकते हैं। सामान्यत: व्यक्ति नींद में स्वप्न तो देखता ही है,जागृत अवस्था में भी दिन में सपने देखता रहता है। अधिकतर तो हमारा मन भूतकाल व भविष्य के सोच-विचार में उलझा रहता है। जीवन में प्रखर चेतना और सजगता का अनुभव प्राय: व्यक्ति कभी कभार ही कर पाता है। ऐसे सात्विक क्षण बहुत दुर्लभ होते हैं। अत: हम जीवन में प्रसन्नता और प्रफुल्लता को भी कम ही अनुभव कर पाते हैं।
मनुष्य में सभी प्रकार के जीव-जंतुओं का सम्मिश्रण है। (इसलिए मनुष्य कभी शेर की तरह गरजता है और कभी गुर्राता है।) यदि हम मिल कर भजन-कीर्तन में डूबते हैं तो हम पक्षियों की भांति हल्के-फुल्के हो जाते हैं और हमारी चेतना ऊपर की ओर बढ़ने लगती है और इस तरह हमारे जीवन में सत्व का और अधिक समावेश होता है। अब इन तीन गुणों की चर्चा भोजन के संदर्भ में-ठीक मात्रा में आवश्यकतानुसार भोजन करना,भोजन जो सुपाच्य हो, ताजा हो और कम मिर्च-मसाले वाला हो, ऐसा भोजन सात्विक भोजन है और सात्विक प्रवृत्ति वाले लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं। राजसिक प्रवृत्ति के लोग अधिक तीखा, मिर्च-मसाले वाला, तेज नमकीन या अधिक मीठा भोजन पसंद करते हैं। बासी, पुराना पका हुआ और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भोजन तामसिक प्रवृत्ति के लोग पसंद करते हैं। आयुर्वेद के अनुसार 6-7 घंटे पहले का पका हुआ भोजन तामसिक होता है।
हमारा यह ब्रह्मांड और शरीर पांच तत्वों अर्थात पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्रि पर आधारित माना गया है। इन्हीं से दुनिया चलती है और आत्मा के जरिए विभिन्न प्राणियों या योनियों के रूप में जीव संसार में घूमता फिरता रहता है। मानव देह के अतिरिक्त धरती, आसमान और नदियों तथा समुद्रों में अपनी प्रति और उपयोगिता के अनुसार सभी प्रकार के जीव जंतु, पक्षी आदि सृष्टि के आरंभ से कुदरत के साथ तालमेल बिठाते हुए जिंदगी को जीने लायक बनाते आए हैं। वसुधैव कुटुंबकम् की नींव भी यही है। यह तो हुई भौतिक या शारीरिक गतिविधियों को संचालित करने की प्रक्रिया लेकिन शरीर में एक और तत्व है जो किसी दूसरे जीव को उपलब्ध नहीं है, वह है हमारा मन या दिमाग जिससे हमारी मानसिक गतिविधियों का संचालन होता है। हम क्या सोचते हैं, क्या और कैसे करते हैं, यह सब पहले हमारे मस्तिष्क में जन्म लेता है और हमारे शरीर के विभिन्न अंग उसी के अनुरूप आचरण करने लगते हैं। सबसे पहले पृथ्वी को ही लें जिसे ठोस माना गया है।
उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री धर्मवीर प्रजापति सिर्फ नाम से ही धर्मवीर नहीं है वह ज्ञान से भी धर्मवीर है। आज उन्होंने सुबह-सुबह वाक के दौरान योग कर रहे योगार्थियों को जीवन जीने का रहस्य बताया। जिसमें उन्होंने सतों गुण रजोगुण और तमोगुण का विशेष वर्णन किया। यही नहीं उन्होंने अस्वस्थ किया कि गर्भ में आते ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण कर दिया जाता है कि इसका क्या होना है और यह सब पहले से ही तय होता है किसका क्या होना है। उन्होंने वार्ता के दौरान एक कहानी भी सुनाई रास्ते में एक संत कटोरा लेकर भिक्षावृत्ति के लिए जा रहा था उसे एक अजगर रास्ते में पड़ा मिला जो चल फिर नहीं सकता था फिर भी उसे भोजन मिलता था। उन्होंने यह मान लिया की धरती पर जिसका जन्म हुआ है उसका भारण पोषण ईश्वर किसी न किसी प्रकार से जरूर करता है। मंत्री जी ने आजकल हो रहे कथा वाचकों पर भी टिप्पणी की और कहा कि तपस्वी व्यक्त सबको नहीं देता है वह सिर्फ पात्र को ही देता है अगर गुरु की नजर शिष्य के धन पर होती है तो उस गुरु को नर्क ही प्राप्त होता है। धर्मवीर प्रजापति ने कहा कि अगर आप ईश्वर में विश्वास करते हैं तो सिर्फ विश्वास करिए उस पर शक मत करिए। तात्पर्य था कि जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिह तैसी। कभी-कभी, सत्वगुण रजोगुण और तमोगुण पर हावी हो जाता है जिससे जीवन में प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार कभी-कभी जीवन में रजोगुण या तमोगुण प्रबल हो जाता है। रजोगुण के बिना हम कोई कार्य नहीं कर सकते। तमोगुण के बिना हम रात को सो नहीं सकते और सत्वगुण के बिना हम प्रार्थना नहीं कर सकते। भगवान ने रजोगुण और तमोगुण को जीवन में समस्याएँ लाने के लिए नहीं, बल्कि जीवन को सुचारु रूप से जीने के लिए पैदा किया है । हालाँकि, आपको इनका उपयोग अच्छे काम के लिए सही और समझदारी से करना होगा।
माया के तीन गुण माने जाते हैं तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण और ये तीनों ही गुण जीव को बंधन में डालते हैं। मानो मनुष्य में तीनों गुणों का मिश्रण होता है, परंतु कर्म अनुसार एक गुण आगे बढ़ता है। अब क्योंकि जीव अनेक प्रकार के हैं इसलिए निम्न लक्ष्णों से युक्त है। कोई बड़ा निष्क्रिम है, कोई बड़ा कर्मठ है, कोई बड़ा सुखी है तो कोई असहाय। इस प्रकार लक्ष्णों वाले गुण ही प्रकृति में जीव की वृद्धावस्था के कारण हैं। अब जीवों में किस-किस गुण से कौन-कौन सा बंधन होता है।
तमोगुण– गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन! सब जीवों को मोहने वाले ‘तमोगुण’ को अज्ञान से उत्पन्न जान। ये गुण देह अभिमानी जीवन का प्रमाद,आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। तमोगुण सतोगुण के बिलकुल विपरीत कार्य करता है। अर्थात तमोगुण से मोहित जीव प्रभंत हो उठता है और जो प्रभंत है उसे इस हालत में कभी तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उत्थान के स्थान पर उसका पतन ही होता है। मानो तमोगुण परमाद (असत्य) से बांधता है। तमोगुणी व्यक्ति सदैव निराशा महसूस करता है और भौतिक द्रव्यों के प्रति व्यसनी बन जाता है। इसलिए ये बंधन मुक्त नहीं है।
रजोगुण- पवित्र गीता में वर्णित है कामजनित रजोगुण को तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न जान, रजोगुण जीव को सकाम कर्म की आसक्ति में बांधता है। अब रजोगुण का स्वरूप स्त्री और पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाले आकर्षण है। स्त्री पुरुष में राग रखती है और पुरुष स्त्री में राग रखता है। अतः रजोगुण मोहरूप है और जीवन को इच्छा और कर्म में बांधता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर तृष्णा जाग्रत होती है जिससे रजोगुण इंद्रिय तृप्ति के लिए उन्मत हो उठता है और फिर इंद्रिय तृप्ति के लिए रजोगुणी मनुष्य समाज अथवा राष्ट्र में सम्मान तथा सुख, परिवार और गृह आदि विषयों की ख्वाहिश करता है। ये सब रजोगुण के कार्य हैं। इसी कर्मफल की आसक्ति में रजोगुणी मनुष्य बंध जाता है। अतः आधुनिक सभ्यता में संपूर्ण विश्व ही रजोगुण के वशीभूत हो रहा है।
सतोगुण- प्रकृत जगत में जब सतोगुण का विकास होता है, तो सतोेगुणी मनुष्य अन्य जीवों से अधिक बुद्धिमान हो जाता है क्योंकि सतोगुणी प्रकाश वाला है, सतोगुणी मनुष्य लौकिक दुःखों से अधिक प्रभावित नहीं होता। ऐसे मनुष्य में ये भाव बना रहता है कि वह सुखी है। अब इसके सुख का कारण ये है कि सतोगुण में पाप कर्मफल का अभाव रहता है। मानो सतोगुण का अर्थ अधिक सुख तथा अधिक ज्ञान है। इसके परिणाम दूसरे गुणों से भिन्न है परंतु तीनों गुणों का परिणाम एक ही निकाला जाता है। सतोगुण भी बंधन मुक्त नहीं है क्योंकि सतोगुण में जीव को ये अभिमान हो जाता है कि वो ज्ञानी है, दानी है, श्रेष्ठ है। अतः इस उपाधि से मनुष्य ऐसा बंधता है। अब ये बात स्पष्ट है कि तीनों गुण वालों को बंधन से मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए मुक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाना या पार चले जाना अनिर्वाय है क्योंकि आत्मा परमात्मा इन तीनों गुणों से ऊपर है। जो आदमी इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है यानी गुणातीत हो जाता है ये न तो तामसी होता है, न राजसी होता है, न ही सत्विक होता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने रजोगुण,तमोगुण व सतोगुण का वर्णन किया है
- जो मनुष्य मन में दया रखकर अपनी इन्द्रियों के वश न होवे,शुभ कर्म करने का विचार किया करे,किसी के दुर्वचन कहने से खेद न मानकर परमेश्वर का स्मरण ध्यान करता रहे,सच बोले,स्वभाव में धैर्य रक्खे,मन में संतोष रखकर किसी वस्तु की चाह न करे ये लक्षण सतोगुण के हैं।
- जो मनुष्य सुंदर स्त्री,उत्तम भूषण,वस्त्र,स्थान व बाग आदि संसारी सुख की चाह रक्खे,अभिमान से किसी का कहना न माने,जो शुभ कर्म करे उसमें अपना यश चाहे,सदा सामर्थ्य व द्रव्य बढ़ाने का उपाय करता रहे उसे रजोगुणी समझना चाहिये।
- जो मनुष्य अधिक क्रोध व लोभ रक्खे,झूठ बोले,जीव हिंसा करे,कुकर्म करने और माँगने से निर्लज्ज होकर लोगों के साथ झगड़ा करता रहे,आठों पहर आलस्य में भरा रहकर अधिक नींद ले, ये लक्षण तमोगुण के हैं।
सब वस्तु को अपना समझना और मेरा-तेरा विचारना,अपने को मैं जानना, ह बात तीनो गुण मिलने से होती है। पर मेरा भजन व ध्यान करनेवाले को सतोगुण के प्रताप से कुछ चाह नहीं रहती। तीनो गुण आठों पहर बराबर नहीं रहते , घटा-बढ़ा करते हैं। आत्मा तीनों में मिश्रित व सबसे बिलग रहता है। सतोगुण स्वभाववाले स्वर्ग का सुख भोगते हैं, रजोगुणी मनुष्य अपने कर्मानुसार दुःख व सुख भोगकर जन्म व मरण से नहीं छूटते और तमोगुणी लोग नरक में बड़ा दुःख पाते हैं। संसार से विरक्त होने व मेरे चरणों का ध्यान व भक्ति करनेवाले हमारे पास वैकुंठ में पहुँचते हैं।
“संसार में हमें किसी भी पदार्थ में तीन प्रकार की शक्तियों के काम करने का अनुमान होता है। कोई शक्ति किसी पदार्थ को उत्पन्न करती है, दूसरी शक्ति उसका पोषण करती है और तीसरी शक्ति उसका विनाश कर देती है। इन शक्तियों को हम क्रमशः रजोगुण,सत्त्वगुण और तमोगुण कहते हैं। यहाँ ‘ गुण ‘ का अर्थ प्रकृति का स्वभाव है। इन गुणों को हम देख नहीं पाते। इनके कार्यों से इनके होने का अनुमान होता है। हमारे शरीर की उत्पत्ति में रजोगुण कारण है और उसी के द्वारा शरीर बढ़ता है। सतोगुण उसका पोषण करते हुए उसका अस्तित्व बनाये रखता है। तमोगुण के कारण शरीर बदलता रहता है और अंत में नष्ट हो जाता है।
हमारा जीवन यह एक ऐसा जीवन था जो तमोगुणी से रजोगुणी और फिर सतोगुणी हो जाता है, जो व्यक्ति प्रकृति के इन तीनों गुणों से आगे चला जाता है तो वहां व्यक्ति जो जीवन जीता है वो आत्मस्थ होता है। इसलिए गीता में तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से भी आगे जीवन जीने के लिए कहा जाता है, इन सबके आगे मात्र सत्य होता है। गीता हमें प्रकृति के पार जाकर उस सत्य यानी मुक्ति की प्राप्ति का सन्देश देती है। यह एक ऐसा जीवन था जो तमोगुणी से रजोगुणी और फिर सतोगुणी हो जाता है, जो व्यक्ति प्रकृति के इन तीनों गुणों से आगे चला जाता है तो वहां व्यक्ति जो जीवन जीता है वो आत्मस्थ होता है। इसलिए गीता में तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से भी आगे जीवन जीने के लिए कहा जाता है, इन सबके आगे मात्र सत्य होता है। गीता हमें प्रकृति के पार जाकर उस सत्य यानी मुक्ति की प्राप्ति का सन्देश देती है। पंच तत्वों से बना संसार-जीवन के तीन आधार