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दुख, तनाव और अवसाद समूचे विश्व की समस्या हैं। भारत का योग विज्ञान ऐसी समस्याओं का ठोस उपचार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से योग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो गया है। गीता का बड़ा हिस्सा योग प्रधान है। गीता में प्रकृति के सूक्ष्म विश्लेषण वाला सांख्य दर्शन है। इसे सांख्य योग कहा गया है। ईश्वर या देवताओं की आराधना भक्ति कही जाती है। गीता में भक्ति भी योग है। भारत का जीवन कर्म प्रधान है। गीता में कर्मयोग भी है। योग परिपूर्ण विज्ञान है। जैसे योग अंतर्राष्ट्रीय हो गया है वैसे ही गीता भी तमाम ज्ञान सम्पदा के कारण अंतर्राष्ट्रीय दर्शन ग्रंथ है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हरियाणा में अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव में हिस्सा लिया। उन्होंने कहा कि, ‘‘गीता में हर शंका का समाधान है। यह विश्व का पवित्र ग्रंथ है। सही अर्थ में अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथ है।” प्राचीन काल में भी प्रचलित था। तब जीवन तनाव ग्रस्त नहीं था। आधुनिक काल की परिस्थितियां जटिल हैं। योग विज्ञान का महत्व बढ़ा है। योग प्राचीन ज्ञान है। इसे सूत्र रूप में व्यवस्थित करने का काम पतंजलि ने किया था। योगसूत्र नामक ग्रंथ लिखा। पहला योगसूत्र है – अथ योगानुशासनम् – अनुशासन का अर्थ प्रकृति के अंतर्संगीत से जुड़ जाना है। पतंजलि ने बताया है कि, ‘‘चित्त की वृत्तियाँ दुखदाई होती हैं। उन्होंने योग की परिभाषा की, ‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।” योग शारीरिक व्यायाम नहीं है।‘‘ पतंजलि ने बताया है कि योग सिद्धि में व्यक्ति अपने स्वरुप में स्थापित हो जाता है। यह योग भारत से चल कर यूरोप पहुंचा। यूरोपीय विद्वानों ने इसे योक् कहा। आधुनिक समाज के लोग योग को योगा कहते हैं। लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए० एल० बासम ने, ‘दि वंडर दैट वाज इंडिया‘ (पृष्ठ 235) में बताया कि योग पश्चिम में सुविदित है और अंग्रेजी शब्द योक् से सम्बंधित है।
गीता में योग की प्रतिष्ठा है। मनुष्य का शरीर रहस्यपूर्ण है। निष्काम कर्मयोग उपनिषद व गीता दर्शन का सार है। लेकिन कर्म करना और कर्म परिणाम की इच्छा न करना कठिन है। गीता (6-24) में कहते हैं, ‘‘ निरपवाद रूप से समस्त इच्छाओं का त्याग और इन्द्रियों को मन द्वारा वश में करना चाहिए।” लेकिन मन ही अंतिम चरण नहीं है। कहते हैं, ‘‘धीरे धीरे बुद्धि के द्वारा विश्वासपूर्वक मन को आत्मस्थ करना चाहिए और कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।‘‘ (वही 6-25) कुछ भी न सोचने का विचार पूरा करना कठिन है। सोचने का विचार न रखना भी सोचना है। मन की क्षमता विराट है। मन भागता है। कभी यहां कभी वहां। ऋग्वेद में कहते हैं, ‘‘हम दिव्यलोक भूलोक तक गए मन को वापस लाते हैं। चंचल मन को दूरवर्ती क्षेत्रों से वापस लाते हैं। जो मन समुद्र, अंतरिक्ष या सूर्य लोक, दूरस्थ पर्वत, वन या अखिल विश्व में गया है, हम उसे वापस लाते हैं।” ऋग्वेद की ही तरह गीता (6-26) में कहते हैं, ‘‘चंचल और अस्थिर मन जहां जहां भागता है उसे वापस लाकर अपने केन्द्र में लाना चाहिए।” आगे कहते हैं, ‘‘प्रशान्त मन से योग साधक उत्तम सुख प्राप्त करता है। वह राग द्वेष रहित शान्त हो कर सम्पूर्णता के साथ एक हो जाता है।” प्रत्येक कर्म का परिणाम होता है। कर्मफल पाने की इच्छा स्वाभाविक है। कर्म बंधन में डालते हैं। लेकिन गीता में कहते हैं कि योगसिद्ध ब्रह्म स्पर्श का अनुभव करता है। ब्रह्म से जुडी अनुभूति स्वयं को सम्पूर्णता के साथ जोड़ती है।” श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘‘तब सभी तत्वों में स्वयं का ही अनुभव होता है – सर्वभूतस्थमात्मानं। स्वयं के भीतर सभी तत्वों की अनुभूति होती है – सर्वभूता न चात्मनि। ऐसा योग युक्त समदर्शी हो जाता है – सर्वत्र समदर्शिनः। गीता में कहते हैं, ‘‘जो सभी तत्वों में आत्म को और स्वयं में सभी भूतों को देखता है, उसे शोक नहीं होता।”
