To understand Gandhi, one has to understand the beauty of giving his life.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 154 वीं जयंती पर विशेष
शिवकुमार शुक्ला
दुनिया व्यक्तिओं को उनके जन्मदिवस से याद करती है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि जन्म एक इत्तफाक है इस पर जन्म लेने वाले का कोई वश नहीं चलता।इसलिए जन्मदिन पर याद करने के बजाय हमें व्यक्तिओं के उस दिन से याद करना चाहिए जिस दिन से उसका जन्म सार्थक होता हो, उन पर रोशनी पड़ती हो और उनका जीवन प्रकाशित होने लगता हो। अगर हमें गांधीजी की जिंदगी में कोई ऐसा दिन चुनना हो जिस दिन से उनके जन्म की सार्थकता फ्लड लाइट की तरह प्रकाशमान होने लगती है तो वह दिन है 30 जनवरी 1948 है । उस दिन से गांधी के जीवन का पूरा अर्थ समझ में आता है ।
गांधी क्यों जिये ये उनकी मौत से और मौत के तरीके से पता चलता है। उनकी मौत के तरीके से ऐसी स्थिति बनी जिसने एक प्रकार से गांधी को ईसा मसीह या सुकरात की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया । ईसा को सूली पर चढ़ाया गया, सुकरात को जहर देकर मारा गया और गांधी ने अपनी छाती पर तीन गोलियां खाकर शरीर छोड़ा। ईसा के सूली पर चढ़ने को दुनिया के करोड़ों लोग ठीक उसी प्रकार स्मरण करते हैं जिस प्रकार हम 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की छाती पर लगी तीन गोलियों के बाद याद करते हैं।
गांधीजी का रिश्ता जितना उनके जीवन से है उतना ही उनका रिश्ता मौत से है। गांधीजी ने अपना जीवन दर्शन समझाने के लिए न तो कोई पुस्तक लिखी और न ही अपने पीछे कोई संगठन बनाकर छोड़ा। जो कुछ भी छोड़ा वह हमारे सामने है। उन्होंने लिखा भी है कि ‘मैंने क्या कहा है, मैंने क्या लिखा है, इन सबको खोजने के चक्कर में मत पड़ो। मैंने जो जिया है बस उतना ही देखो, उसमें जो कुछ अच्छा लगे उसे ही ग्रहण करो। जो ग्रहण करोगे उसमें शायद बहुत सारी बातों के जवाब मिल जाएंगे। मेरा जीवन ही संदेश नहीं है मेरी मृत्यु भी संदेश है।
जब हम गांधी की खोज करते हैं तो हर बार कुछ ऐसी नई चीज निकलकर हमारे सामने आ जाती है जो कल तक समझ में नहीं आयी थी वो आज समझ में आई है। ऐसा लगता है कि कल कुछ पन्ने ऐसे थे जो खुले नहीं थे आज वो पन्ने खुले हैं। गांधी में कुछ ऐसा है जिसे बार-बार देखने की जरूरत पड़ जाती है। रामधारी सिंह दिनकर जी ने लिखा है-
तेरा विराट यह रूप,कल्पना पट पर नहीं समाता है।
कितना कुछ कहूं मगर,कहने को शेष बहुत रह जाता है।
यह जो कहने के बाद भी कुछ कहने की जरूरत रह जाती है। वही शायद गांधी का नया अन्वेषण है। दिनकर जी से बहुत पहले एक बहुत बड़े वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधीजी के बारे में कहा था कि हाड माँस का कोई ऐसा आदमी भी हमारी तुम्हारी तरह इस दुनिया में चला था । इस पर आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास करेंगी। इसलिए मुझे ऐसा लगा कि जीवन की खिड़की से ही नहीं मृत्यु की खिड़की से भी गांधी को देखने की कोशिश करनी चाहिए । गालिब ने लिखा है कि-
मौत का एक दिन मुअय्यन है ,नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।
लेकिन यहां हम जिस गांधी के बारे में बात कर रहै हैं, उनको अच्छी तरह नींद आती है। यह जानते हुए भी की मौत बिल्कुल सामने है, कभी गांधीजी को असहज होते हुए, चिंतित होते हुए और नींद नहीं आ सकने की अवस्था तक जाते हुए किसी ने नहीं देखा। ऐसा लगता है कि गांधीजी जीवनभर मौत के साथ ही जीने की कोशिश करते रहे। उन्होंने किसी हठयोगी की तरह मृत्यु की साधना नहीं की,उन्होंने जीवनभर मौत का सामना किया। गांधी जी का पूरा जीवन दरअसल एक अहिंसक व्यक्तित्व के निर्माण की साधना है और मृत्यु उसमें बहुत बड़ा हिस्सा है। यानी अहिंसक होने के लिए वीरता की एक उत्कट परिभाषा या उत्कट साधना की आवश्यकता होती है।
गांधी के सामने सवाल यह है कि वे जिस जीवन को जी रहे हैं उसमें हर कदम पर मौत उनके सामने खड़ी रही और वे बिल्कुल सहज भाव से उसके साथ एक संबंध स्थापित करते रहे । भारत आने के बाद 30 जनवरी 1948 को जो तीन गोलीयां उनको लगीं, उससे पहले 5 बार उनको मारने की कोशिश की गई और इन पांचों हमलों के बारे में गांधीजी की कभी कोई प्रतिक्रिया हमें देखने को नहीं मिलती। हमले की घटनाएं हम जरूर पढ़ते हैं लेकिन गांधीजी उन पर बिल्कुल चर्चा नहीं करते और सहज भाव से आगे निकल जाते हैं। मौत के सामने सहज रहना बहुत बड़ी बात है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे का एक बहुत अच्छा कथन है वे कहते हैं कि घोर विपदा के समय अगर तुम सहज रह सके उसी को साहस कहते हैं हैं। जब तुम संकट से घिर गए हो , उस समय अगर तुम अपनी सहजता छोड़ देते हो और क्रोध में या डर में प्रकट होते हो तो तुम साहसी नहीं हो। साहसी का मतलब जैसे तुम हो घोर विपदा के समय भी वैसे ही बने रहो।
20 जनवरी को बिरला हाउस में गांधी जी की प्रार्थना सभा में बम फेंका जाता है और गांधीजी उसमें बच जाते हैं। लेडी माउंटबेटन उनसे मिलने आती हैं और कहती हैं कि उस बम विस्फोट में भी आप सहज रहे यह बहुत बड़ी बहादुरी है। तो गांधी कहते हैं कि इसमें कौनसी बहादुरी की बात है? क्योंकि मुझको तो पता ही नहीं था कि ऐसा हो रहा है। पता हो और सामने से कोई आए और फिर भी मैं उतना ही सहज रह सकूं तब बहादुरी की बात है। अनजाने में बहादुर बने रहना कौन सी बड़ी बात है।
30 जनवरी से 2 दिन पहले 27 जनवरी को अमेरिकी पत्रकार विंसेंट सीन गांधी से मिलने आते हैं। वे गांधी जी के बहुत ही प्रिय पत्रकारों में से एक है। वे कहते भी हैं कि जब मैं आपसे मिलने आता हूं तो पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि मैं आपका मुरीद हूं इसलिए आता हूं। विसेंट सीन बहुत परेशान है क्योंकि जब से वे दिल्ली आए हैं तब से वे दिल्ली की हवा में गांधी की मौत की गंध पहचान रहे हैं। गांधीजी की मौत की गंध का उनके मन पर बड़ा बोझ है। जब वे गांधी से बात करते हैं तो गांधी उन्हें बीच में ही रोकते हुए कहते हैं कि ‘ देखो मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं अब एक ऐसी जगह पर आकर खड़ा हूं जहां पर मेरा मरना शायद दुनिया के लिए ज्यादा उपयोगी होगा बजाए मेरे जीने के। विशेंट सीन इस बात को सुनते भी है और आगे चर्चा करने लगते हैं तो गांधी उन्हें रोकते हैं और कहते हैं कि तुमने सुना मैंने क्या कहा? विसेंट सीन कहते हैं वह तो मैंने सुन लिया लेकिन मैं आपसे यह पूछने अमेरिका से आया हूं कि जिस फासिज्म को खत्म करने की लड़ाई हमने लड़ी थी, उस लड़ाई में से इतने सारे फ़ासिस्ट कैसे पैदा हो गए? एक अच्छे काम के लिए किया गया काम इतना बुरा परिणाम कैसे ला सकता है? तो गांधी हंस कर कहते हैं कि यह साधन का सवाल है। अगर साधन सही नहीं है तो साध्य भी सही नहीं हो सकता। विशेन्ट सीन पूछते हैं कि क्या हर समय ऐसा ही होगा ? तो गांधी कहते हैं हां। जहां तक मैं समझ पाया हूं हर समय, हर परिस्थिति में यही होगा। हो सकता है तुम्हारा साध्य बहुत अच्छा हो लेकिन तुम अच्छे साधनों से उस साध्य तक पहुंचने की कोशिश नहीं करोगे तो तुम कहीं और ही पहुंचोगे। अहिंसा का कोई विकल्प नहीं है हम लोग अहिंसा को कई तरह की कैटेगरी में बांधने की कोशिश करते हैं लेकिन अहिंसा का कोई विकल्प है ही नहीं, यह अपने आप में पूर्ण हैं और तुमको पूर्णता के साथ इसको समझना और आगे ले जाना होगा।
विशेन्ट सीन गांधीजी से दोबारा मिलने की बात कहते हैं। तो गांधी कहते हैं तुम तो कभी भी आ सकते हो। लेकिन एक बात याद रखना वे धीरे से उसको अपने नजदीक बुलाकर कहते हैं कि कल को अगर मैं तुमको समय देने की हालत में ही नहीं रहूं तो तुम इस बात को समझ लोगे ना? कल मैं तुमको समय देने की हालत में ही ना रहूं इसका एहसास उनको है कि चारों तरफ से हत्यारों का एक समूह उनके नजदीक आता जा रहा है और वह घिरते जा रहे हैं। इसका पूरा अहसास गांधी बहुत अच्छे से समझ रहे हैं और वे संकेत छोड़ते हैं कि वे इस बात से अनजान नहीं है। लेकिन इसके बावजूद वे अपनी प्रार्थना सभा में आने वाले व्यक्ति की जांच की अनुमति नहीं देते। जब सरदार पटेल यह प्रस्ताव लेकर जाते हैं कि इस तरह की इंटेलिजेंस की रिपोर्ट आ रही है इसलिए आपकी प्रार्थना सभा में आने वाले लोगों की जांच होनी चाहिए तो गांधी कहते हैं कि इसकी अनुमति मैं नहीं दूंगा और अगर ऐसा तुम करोगे तो मैं सड़क पर जाकर प्रार्थना करूंगा। जब दरवाजा पूरा खुला हुआ है और आपको यह मालूम हो इसी दरवाजे से वह मौत आने वाली है जिसको आप महसूस कर रहे हैं फिर भी उससे अनजान बने रहना और यह मानना कि अगर कुछ घटित होता भी है तो वह उस साध्य को मजबूत करेगा, क्योंकि मैं जिस साधन से चल रहा हूं उस साधन में कहीं कोई दोष नहीं है।
मृत्यु के साथ इस तरह का रिश्ता बनाना जिस रिश्ते में आप बिल्कुल उसके साथ चलते हैं वह जिस दिन घट जाएगी, घट जाएगी। मौत के साथ मित्रता का नाता बनाना बहुत कठिन कार्य है। गांधी जी का जो एप्रोच है वह अहिंसा को साधने का एप्रोच है क्योंकि वह इस बात को समझते हैं कि जो डरा हुआ है वह अहिंसक हो ही नहीं सकता। अहिंसक होने के लिए तुमको हर तरह के डर से ऊपर उठना होगा। और उसमें जो सबसे बुनियादी और पहला डर है वह मौत का डर है। तो मरने के डर से जो डरा हुआ है वह तो हर खतरे में अपने को झुकाकर निकाल ले जाता है। इसलिए मौत के भय से त्याग अहिंसक लड़ाई की एक अनिवार्य शर्त है। जैसे हिंसक लड़ाई में तुम जान लेने का अभ्यास करते हो अहिंसक लड़ाई में जान देने का अभ्यास करना पड़ता है और उसकी भी अलग-अलग सीढ़ियां हैं। अगर हम गांधीजी को समझना चाहते हैं तो गांधी की तरह जान देने का सौंदर्य हमें सीखना होगा। वे जिस तरह से जिए और जिस तरह से मरे उस तरीके को समझना हम सबके लिए बहुत जरूरी है अगर हम गांधी को सच्चे अर्थों में समझना चाहते हैं।
संदर्भ- कुमार प्रशांत ,अध्यक्ष गांधी शांति प्रतिष्ठान