न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा,दूसरी पर खामोशी क्यों.?

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न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा,दूसरी पर खामोशी क्यों.?
न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा,दूसरी पर खामोशी क्यों.?
संजय सक्सेना
संजय सक्सेना

न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा, दूसरी पर खामोशी क्यों..? न्याय के नाम पर कहीं सड़कों पर हंगामा है, तो कहीं उसी न्याय पर रहस्यमयी खामोशी। सवाल ये नहीं कि घटना क्या है, सवाल ये है कि कुछ मामलों में शोर क्यों और कुछ में चुप्पी क्यों? क्या न्याय भी अब हैसियत, पहचान और सियासत देखकर तय होता है? यही दोहरा पैमाना आज सबसे बड़ा सवाल बन गया है। न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा,दूसरी पर खामोशी क्यों.?

लखनऊ। गत दिनों की बात है जब उन्नाव रेप केस में सजा काट रहे बीजेपी के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली हाईकोर्ट ने जमानत दे दी थी। (अब सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले पर स्टे लगा दिया है) मगर, इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट  फैसला आते ही पूरे देश में सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। विपक्षी दल और सामाजिक कार्यकर्ता कोर्ट के आदेश को नजरअंदाज कर बीजेपी सरकार और उसके नेताओं पर निशाना साधने लगे। लेकिन सवाल यह है कि वही धरनाजीवी तब कहां गायब हो जाते हैं, जब समाज के दूसरे तबके से जुड़े अपराध सामने आते हैं? लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) में मुस्लिम रेजिडेंट डॉक्टर रमीजुद्दीन नायक पर हिंदू महिला डॉक्टर को प्रेम जाल में फंसाकर धर्मांतरण का दबाव बनाने, यौन शोषण करने और आत्महत्या के लिए उकसाने का गंभीर आरोप लगा है। पीड़िता ने 17 दिसंबर को नींद की गोलियां खाकर सुसाइड की कोशिश की, जिसके बाद एफआईआर दर्ज हुई। आरोपी फरार है, लेकिन इस मामले पर वह शोर-शराबा क्यों नहीं?

केजीएमयू के इस मामले की परतें खुलती जा रही हैं। आरोपी रमीजुद्दीन ने पीड़िता को शादी का झांसा देकर इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया। निजी फोटो-वीडियो बनाकर ब्लैकमेल किया गया। सितंबर में पीड़िता गर्भवती हुई, तो आरोपी ने मेडिकल अबॉर्शन करवाया, लेकिन शोषण बंद नहीं हुआ। पीड़िता ने बताया कि पैथोलॉजी विभाग में धार्मिक प्रवचन आयोजित कर कई महिला-पुरुष डॉक्टरों पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया जा रहा था। डॉक्टरों के संगठन ने वीसी सोनिया नित्यानंद से शिकायत की, लेकिन आरोप है कि मामला दबाने की कोशिश हुई। विभागाध्यक्ष वाहिद अली पर भी मुख्य भूमिका का इल्जाम है। पुलिस जांच जारी है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा क्यों ठंडा पड़ा हुआ है?

बहरहाल, यह पहला ऐसा मामला नहीं है। समाज में पक्षपातपूर्ण चुप्पी का सिलसिला लंबा है। याद कीजिए हुदाबिया इंटरनेशनल स्कूल मामला, जहां केरल के एक मदरसे में हिंदू लड़कियों को जबरन धर्मांतरण और शोषण का आरोप लगा। 2023 में सामने आया यह केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, लेकिन मुख्यधारा मीडिया और विपक्ष ने इसे सांप्रदायिक रंग देने से बचाया। नतीजा? आरोपी आजाद घूम रहे हैं। इसी तरह, 2022 में हरियाणा के नूंह में एक मुस्लिम युवक पर हिंदू लड़की को लव जिहाद के जाल में फंसाने का केस दर्ज हुआ। पीड़िता ने आत्महत्या की कोशिश की, लेकिन प्रदर्शनकारियों की भीड़ नदारद रही। इसके विपरीत, जब भी कोई राजनीतिक व्यक्ति या हिंदू पृष्ठभूमि का आरोपी सामने आता है, जैसे हाथरस कांड या उन्नाव केस, तो सड़कें भर जाती हैं।

एक और मामले में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 2024 में एक मुस्लिम शिक्षक पर हिंदू छात्रा को मोबाइल पर प्रलोभन देकर धर्मांतरण का प्रयास करने का आरोप लगा। पीड़िता के परिवार ने एफआईआर कराई, लेकिन स्थानीय स्तर पर ही मामला दब गया। न कोई राष्ट्रीय मीडिया कवरेज, न विपक्षी नेताओं का बयानबाजी का दौर। क्यों? क्योंकि यह संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। वहीं, बिहार के वैशाली में बीजेपी विधायक के बेटे पर बलात्कार का आरोप लगते ही विपक्ष ने सरकार को घेर लिया। सवाल वाजिब है कि न्याय सबके लिए बराबर क्यों नहीं है?

दरअसल, इस विरोधाभास की जड़ें गहरी हैं। राजनीतिक धु्रवीकरण ने न्याय को भी रंग दे दिया है। जब आरोपी सत्ताधारी दल से जुड़ा होता है, तो कोर्ट का फैसला सरकारी दबाव बन जाता है। लेकिन जब आरोपी अल्पसंख्यक समुदाय से हो, तो सांप्रदायिकता फैलाने का ठप्पा लग जाता है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2023 में देशभर में 50,000 से ज्यादा धर्मांतरण से जुड़े शोषण के केस दर्ज हुए, जिनमें अधिकांश लव जिहाद के पैटर्न वाले थे। उत्तर प्रदेश में ही 2024 में 1,200 ऐसे केस सामने आए, लेकिन इन पर चुप्पी साधी गई। लखनऊ में केजीएमयू जैसा संस्थान, जहां सैकड़ों डॉक्टर पढ़ते हैं, वहां विभागीय स्तर पर धार्मिक दबाव यह सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा है। फिर भी, डॉक्टर संगठन की शिकायत के बावजूद कार्रवाई धीमी क्यों?

मीडिया की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। उन्नाव केस पर घंटों डिबेट, लेकिन केजीएमयू पर चुप। क्यों? क्योंकि रेटिंग्स सुरक्षित मुद्दों से आती हैं। सोशल मीडिया पर भी यही होता है-हैश जस्टिस ऑर उन्नाव टेेंªड करता है, लेकिन हैश जस्टिस आफर केजीएमयू डाक्टर नहीं। राजनीतिक दल अपनी सुविधा से चुप्पी चुनते हैं। विपक्ष को सत्ता पर हमला करने का मौका मिलता है, सत्ताधारी दल सांप्रदायिक होने का डर। नतीजा? पीड़ित महिलाएं अकेली पड़ जाती हैं।

यह चुप्पी सिर्फ केजीएमयू तक सीमित नहीं। 2021 के कर्नाटक हिजाब विवाद में मुस्लिम लड़कियों के अधिकार की बात हुई, लेकिन जब उसी स्कूल में हिंदू लड़कियों पर दबाव की खबरें आईं, तो खामोशी। महाराष्ट्र के ठाणे में 2023 में एक मुस्लिम क्लर्क पर हिंदू सहकर्मी महिला को ब्लैकमेल कर धर्मांतरण का केस एफआईआर के बाद कोई फॉलो-अप नहीं। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं। सवाल यह है कि क्या न्याय लिंग, जाति या धर्म के आधार पर बंटेगा? संविधान सबको समान अधिकार देता है, लेकिन व्यवहार में यह दिखता नहीं।आखिरकार, समाज को पक्षपात त्यागना होगा। उन्नाव हो या केजीएमयू हर पीड़िता को न्याय मिले, यही सच्ची लोकतंत्र की पहचान है। जब तक ऐसे मामलों में विरोधास और कहीं हंगामा तो कहीं चुप्पी बनी रहेगी, तब तक अन्याय बढ़ता जाएगा। ऐसी घटनाएं हो नहीं यदि होती है तो इसके खिलाफ आवाज उठाना गलत नहीं है,लेकिन आवाज उठाने के नाम पर देश में अराजकता बर्दाश्त नहीं की जा सकती है। खासकर ऐसे वारदातो के समय सोशल मीडिया कुछ अधिक ही एक्टिव हो जाता है,जिसकी जड़े पाकिस्तान,बंग्लादेश जैसे भारत विरोधी देशों में पनपती हैं। भारत में अराजकता फैलाने का काम देश के अलावा बाहरी ताकतें भी खूब कर रही हैं इस पर भी कानून बनाकर लगाम लगाना जरूरी है। न्याय के नाम पर एक घटना पर हंगामा,दूसरी पर खामोशी क्यों.?