

शब्दों के घटक अक्षर और अक्षर की घटक ध्वनि। ध्वनियों के कुशल संयोजक राग गढ़ते हैं। कोई शब्द अपनी अक्षर शक्ति से मन्त्र बन जाते हैं। ऐसा अक्सर नहीं होता। ऐसा तभी होता है, जब दिक्काल शुभ मुहूर्त की रचना करे। ऐसी मुहूर्त में उत्पन्न होता है शक्तिशाली शब्द, जिसका पुरुश्चरण होता रहता है। वन्दे मातरम् बंकिम चन्द्र के उपन्यास ‘आनंद मठ‘ का हिस्सा है। राष्ट्रीय आन्दोलन में भारत के अवनि अम्बर वन्दे मातरम् के घोष से आपूरित रहे हैं। वन्दे मातरम राष्ट्रीय पुनर्जागरण का बीज मन्त्र है। अभी तीन दिन पहले इसकी 150वीं जन्म जयंती मनाई गई। दुनिया के किसी भी देश में घर घर पहुँचने वाली ऐसी काव्य रचना नहीं मिलती। राष्ट्र जागरण का बीज मन्त्र
‘वन्दे मातरम्” मंत्र का अवतरण वैदिक ऋचाओं की ही तरह 7 नवम्बर, 1875 को हुआ। अंग्रेजी राज के विरुद्ध देश की सांस्कृतिक राष्ट्र भावाभिव्यक्ति वन्देमातरम् में प्रकट हुई। वन्दे मातरम् ‘आनंद मठ‘ (1882) में छपा। कांग्रेस 1885 में बनी। एक वर्ष बाद कलकत्ता में हुए अधिवेशन (1886) में हेमेन्द्र बाबू ने वन्दे मातरम् गाया। अध्यक्ष मो. रहमत उल्लाह सायानी ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। 1896 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे देशराग एक ताल में गाया। ब्रिटिश सत्ता वन्दे मातरम् से डर गई। सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा की। विरोध शुरू हो गया। बंगभंग 16 अक्टूबर, 1905 के दिन लागू होना था। बंगाल धधक उठा। भारत के अवनि अम्बर में वन्दे मातरम् था। 8 नवम्बर, 1905 को वन्दे मातरम् प्रतिबंधित हो गया।
विश्वविख्यात चिन्तक विल डूरेन्ट ने बाद में कहा-”इट वाज 1905, देन दैट इण्डियन रिवोल्यूशन बिगैन।” वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन (1905) में फिर से वन्दे मातरम् गूंजा। पूर्वी बंगाल में कांग्रेस ने शोभायात्रा (1906) निकाली। सेना ने लाठीचार्ज किया। कांग्रेसी नेता अब्दुल रसूल सहित सबने वन्दे मातरम् का जयकारा लगाया। कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता विपिन चन्द्र पाल के अखबार ‘वन्दे मातरम्‘ पर वन्दे मातरम् की प्रशंसा लिखने पर मुकदमा (26.8.1907) चला। विपिन पाल ने ”वन्दे मातरम् के खिलाफ कानूनी कार्रवाई को राष्ट्रद्रोह” बताया। उन्हें 6 माह की सजा की घोषणा हुई। अदालत के बाहर वन्दे मातरम् का जयघोष हुआ। भयंकर लाठीचार्ज में दूर बैठा 15 वर्षीय शिशु सुशील कुमार भी पीटा गया। उसने प्रतिवाद किया। उसे 15 बेतों की सजा सुनाई गई। बेंत की हर मार पर उसने ‘वन्दे मातरम्‘ कहा। 1905-06 वन्दे मातरम् के उत्ताप का कालखण्ड है। वन्दे मातरम् देश के सभी क्षेत्रों में भारत भक्ति का स्वाभिमान बना।
भारत के अनेक भाषा भाषी कवियों ने ‘वन्दे मातरम्‘ अनुवाद किया। विश्वविख्यात कवि सुब्रमण्यम भारती ने तमिल में वन्दे मातरम् गाया। फिर ल.न. पंतलु ने तेलगु में वन्दे मातरम् की भावाभिव्यक्ति दी। भाषाएँ अनेक, भारत माता और वन्दे मातरम् एक का आसेतु हिमाचल प्रवाह था। 2005 में आरिफ मोहम्मद खान (सम्प्रति राज्यपाल) ने इसका एक और उर्दू अनुवाद किया है। समाज के सभी वर्गों में वन्दे मातरम् की लोकप्रियता थी, लेकिन इसी मंत्र के माध्यम से सत्ता में आई कांग्रेस का इतिहास समझौतावादी ही रहा। काकीनाडा कांग्रेस अधिवेशन (1923) हुआ। पं. विष्णु दिगम्बर पुलस्कर के वन्दे मातरम् गायन के समय अध्यक्ष मो. अली ने प्रतिकार किया। पुलस्कार गाते रहे, वे चले गए। वन्दे मातरम् समाज के प्रत्येक हिस्से में था, लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी (कलकत्ता 28.10.1937) ने इसमें काट छाँट की और प्रथम दो चरण ही गाए जाने का प्रस्ताव किया। मो. अली जिन्ना के 11 सूत्री माँग पत्र में एक सूत्र ‘वन्दे मातरम्‘ को खारिज किए जाने का भी था।
भारतीय स्वाधीनता (15 अगस्त, 1947) के सुप्रभात पर सुचेता कृपलानी ने वन्दे मातरम् गाया। आकाशवाणी के निदेशक ने संगीताचार्य पं. ओंकारनाथ ठाकुर से वन्दे मातरम् गायन का न्योता देते हुए कहा-”सरदार पटेल ने आपको बुलाया है।” ठाकुर ने कहा-”हम आएंगे तो ‘पूरा‘ गाएंगे।” दिल्ली ने ‘हाँ‘ किया। आकाशवाणी से वन्दे मातरम् का पूरा प्रसारण हुआ। लेकिन आजादी के 1 वर्ष बाद ही राष्ट्रगान ‘जन गण मन‘ आ गया। क्यों आ गया? प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा (25 अगस्त, 1948) में बताया, ”संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्बली (1947) में हमारे प्रतिनिधि से राष्ट्रगान की माँग की गई। हमारे पास राष्ट्रगान की कोई रिकार्डिंग नहीं थी, जिसे हम विदेश भेज सकते। प्रतिनिधि के पास ‘जन गण मन‘ का रिकार्ड था। इसे बजाया गया तो अनेक देशों के प्रतिनिधियों को बहुत पसंद आया। तब से यही हमारी सेना, विदेशी दूतावासों आदि में जरूरी अवसरों पर बजाया जाता है।”
पंडित जी के तर्क दिलचस्प हैं। उनके तर्क और स्पष्टीकरण गले नहीं उतरते। पंडित नेहरू ने कहा, ”देश के पास राष्ट्रगान की उपयुक्त रिकार्डिंग नहीं थी।” विदेशी प्रतिनिधियों को जन गण मन भा गया। पंडित जी ने आगे कहा-”मैंने प्रदेशों के राज्यपालों से इस पर राय भेजने हेतु पत्र लिखा है। मंत्रिमंडल का फैसला है कि संविधान सभा में अंतिम निर्णय होने तक ‘जन गण मन‘ ही राष्ट्रगान के रूप में गाया जाएगा।” (वही-संविधान सभा) पंडित जी ने मुख्यमंत्रियों के बजाय राज्यपालों से ही क्यों मशविरा माँगा? क्या राज्यपाल केन्द्र के आज्ञापालक थे? मद्रास के तत्कालीन राज्यपाल आर्ची वालग्ड एडवर्ड, उड़ीसा के आसफ अली, बम्बई के धर्मांतरित ईसाई महाराज सिंह, असम के सर अकबर हैदरी आदि नेहरू विचार से भिन्न राय क्यों देते? बेशक पं. बंगाल के मुख्यमंत्री ने वन्दे मातरम् पर आग्रही रुख अपनाया।
पंडित जी ने जन गण मन और वन्दे मातरम् विवाद को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा-”राष्ट्रगान के रूप में वन्देमातरम् और जन गण मन में एक विवाद-सा उत्पन हो गया है। वन्दे मातरम् की महान ऐतिहासिक परम्परा है। कोई दूसरा गीत इसे विस्थापित नहीं कर सकता। जहाँ तक राष्ट्रगान की धुन का सवाल है, शब्दों के अर्थ की बनिस्पत धुन ज्यादा आवश्यक है। यह धुन ऐसी कि भारतीय संगीत और पाश्चात्य संगीत दोनों का प्रतिनिधित्व करती हो जिससे इसके आर्केस्ट्रा और बैंड संगीत दोनों में सरलता से विदेश में उपयोग हेतु बजाया जा सके।” (संविधान सभा वही, 25.8.1948) पंडित जी ने बैंड, आर्केस्ट्रा राग आदि का बहाना बनाया। जबकि यदुनाथ भट्ट ने वन्दे मातरम् को ‘राग मल्हार‘ में गाया। नोपाल चन्द्रधर ने ‘देश मल्हार‘ में और हीराबाई बड़ोदकर ने ‘तिलक कामोद‘ में गाया।
वि.दे. अभ्यंकर ने राग ‘खंभावती‘ व कृष्ण राव ने ‘राग झिझोटी‘ में गाया। पुलस्कर ने कई राग मिलाकर गाए, गंगूबाई हंगल व ओंकारनाथ ठाकुर ने इसी के लिए नया रागः बनाया। लता मंगेश्कर ने इसे परवान चढ़ाया। ए. आर. रहमान को संगीत प्रस्तुतिकरण को सबने सराहा पर कांग्रेस ने हमेशा ‘तुष्टीकरण राग‘ में ही गाया। संविधान सभाध्यक्ष ने जन गण मन को राष्ट्रगान और वन्दे मातरम् को राष्ट्रगीत घोषित (24 जनवरी, 1950) कर दिया। राष्ट्र ने संविधान सभा का निर्देश शिरोधार्य किया पर अलगाववादी तत्वों ने ‘वन्दे मातरम्‘ को हिकारत से ही देखा। विवादों से ‘वन्दे मातरम्‘ और राष्ट्रभाव का सम्मान बढ़ा है। कांग्रेस और अलगाववादी बेपदों ही गए। बंगाली वामपंथी भी अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ नहीं रहे। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। माक्र्सवादी चितक डॉ. रामविलास शर्मा ने (स्वाधीनता संग्राम, पृ. 72) लिखा था-”बंगाल और भारत के नवजागरण (इतिहास) में ‘वन्दे मातरम्‘ को स्थान देना न देना इतिहास विवेचकों के हाथ में नहीं है। इतिहास निर्माताओं ने अपने कार्यों से इसे ‘राष्ट्रीयता का मंत्र‘ बना दिया है।” राष्ट्र जागरण का बीज मन्त्र























