

सोम चन्द्रमा के पर्याय हैं। वे विराट ब्रह्माण्ड का मन हैं। जैसे चन्द्र कलाएं घटती बढ़ती हैं, वैसी ही हमारे मन की चंचलता है। सोम संसारी देवता हैं। ओम सूक्ष्मतम विराट का एकात्म नाद। परम ध्वनि। अस्तित्व सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है और विराट से भी विराट। अन्तर्यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। पत्ती, पुष्प से पेड़ और पेड़ से जड़ की यात्रा सुगम है। जड़ें देखते ही बीज का ध्यान आता है। बीज के भीतर अनंत संभावनाएं होती हैं। पेड़, शाखा, पत्तियां और फूल। फिर-फिर बीज। ओम प्राण शक्ति है और सोम बीज का पल्लवन पुष्पन। ऋग्वेद के सोम कम लोगों को याद हैं लेकिन सोमवार हर सातवें दिन उन्हीं की स्मृति दिलाता है। सोम से ओम् की यात्रा शिव है। यहां कोई भौगोलिक दूरी नहीं। सोम और ओम् साथ-साथ हैं। सोम शिव के ललाट पर हैं ही। शिव का सोम चन्द्र प्रतीक बड़ा प्यारा है। ऋग्वेद में सोम को पृथ्वी का निवासी बताया गया है। सोम असाधारण देवता हैं। आनंददाता भी हैं। एको रूद्र द्वितीयो नास्ति
ऋग्वेद में रूद्र शिव ‘सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं’ हैं। देवों को पुष्पार्चन किया जाता है लेकिन शिव को बेलपत्र और धतूरे का फल। शिव मस्त मस्त बिंदास देवता हैं। परम योगी। नट-राज। श्रीकृष्ण की बांसुरी की धुन पर तीनों लोक मोहित हुए थे तो शिव के डमरू की धुन पर तीनों लोक अस्तित्व में रहते हैं। शिव जब चाहते हैं, रूद्र हो जाते हैं। प्रलयंकर हो जाते हैं लेकिन यही रूद्र शिव भी हैं। ऋग्वेद में “जो रूद्र है, वही शिव भी है।” शिव महाकाल हैं। त्रिशूल उनका हथियार। तीन शूल दैविक, दैहिक और भौतिक कष्ट हैं। भौतिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक वेदनाएं हैं। शिव दुखहारी हैं-त्रिशूल धारक जो हैं। सोंचने से मन नहीं भरता। मैं तनाव की स्थिति में यजुर्वेद के शिव संकल्प सूक्त दोहराता हूं-“हमारा मन भागता है। यहां वहां। ऐसा हमारा मन शिव संकल्प से भरापूरा हो-तन्मे मनः शिव संकल्पं अस्तु।” मंच, माला, माइक का त्रिशूल मेरे भीतर है। सोम सामने है, भीतर ओम है। लेकिन सोम से वंचित हूं। ओम् की अनुभूति नहीं। करूं तो क्या करूं? ऋग्वेद के ऋषि वशिष्ठ ने आर्तभाव से पुकारा था र्तयम्बक रूद्र को-हमें पकी ककड़ी की तरह मृत्यु बंधन से मुक्त करो।
सावन का माह भारत में शिव उपासना की मंगल मुहूर्त है। शिव सोम प्रेमी हैं। सोम प्रकृति की सृजन शक्ति है। सृजन की यही शक्ति शिव ललाट की दीप्ति है। ऋग्वेद के ऋषियों के दुलारे सोम वनस्पतियों के राजा हैं। सोम प्रसन्न होते हैं, वनस्पतियां औषधियां उगती हैं खिलती हैं खिलखिलाती हैं। भारतीय सप्ताह में पहला दिन रविवार रवि का तो दूसरा दिन सोमवार सोम का। शिवभक्तों को सोमवार प्रीतिकर है। काशी बहुत जाता हूं। काशी मंदिर में शिव उपासना की मूर्ति है। शिव दर्शन कई बार हुआ। लेकिन सावन में मैंने समूची काशी को सोम शिव पाया। हर-हर महादेव की गूंज व लोक उल्लास।
सत्य, शिव और सुंदर की त्रयी में सत्य परम है। सत्य शिव है। सत्य और शिव का एकात्म सुंदर होता है। शिव में तीनों हैं। शिव और लोकमंगल पर्यायवाची हैं। आस्तिकों के लिए यह ऊर्जा सहज प्राप्य नहीं है। शिव के प्रति लोक आस्था विस्मयकारी है। शिव प्राप्ति के प्रयास जरूरी हैं। पार्वती को भी शिव प्राप्ति के लिए महातप करना पड़ा था। कालिदास के ‘कुमार संभव’ में तपरत पार्वती को एक ब्रह्मचारी ने भड़काया “पार्वती! आप भी किस प्रेम में फंस गई। आपका सुंदर हांथ सांप लिपटे शंकर को कैसे छुएगा। कहां हंस छपी चूनर ओढ़े आप? और कहां खाल ओढ़े शंकर?” शिव शंकर के रूप-कुरूप पर उसने बहुत कुछ कहा। पार्वती ने कहा “संसार के सारे रूप शिव के ही हैं-विश्वकूर्तेखाधार्यते वपु।” शिव ही सभी रूपों में रूप रूप प्रतिरूप हैं। कालिदास के कथानक में तब शिव ने अपना रूप प्रकट कर दिया। शिव बोले “अब मैं तुम्हारा दास हूं, पार्वती-तवस्मि दासः।” मन करता है कि पूंछू शिव से-महादेव! इतना कठोर तप क्यों कराते हैं? लेकिन शिव तप प्रभाव में स्वयं भक्त के भी भक्त बन जाते हैं।
भारतीय साहित्य शिव-पार्वती के सम्वाद से भरापूरा है। पार्वती प्रश्नाकुल हैं और शिव समाधानकर्ता। तुलसीदास के रामचरित मानस में पार्वती ने सीधे राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न पूंछा। शिव ने ब्रह्म तत्व समझाया लेकिन पार्वती ने स्वयं परीक्षा ली। यह भी उचित था। अनुभव करना सुनने से ज्यादा श्रेष्ठ है। लेकिन शिव सब जानते थे। वे सर्वत्र उपस्थित हैं। उनके कण्ठ में विष है। वे नीलकंठ हैं। गले में सांप भी हैं लेकिन चन्द्रमा शिव का प्रिय आभूषण है। शरद् चन्द्र की पूर्णिमा सोम की ही वर्षा करती है। शिव ने सनत् कुमारों को बताया कि उनके तीन नेत्र हैं। सूर्य दांया नेत्र है और बांया चन्द्रमा। अग्नि मध्य नेत्र हैं।
शिव अजन्मा हैं। उनका न जन्म हुआ और न ही मृत्यु। वे अजर अमर भोले शंकर हैं, औघड़दानी हैं। गण समूहों के मित्र हैं। गणों के साथ स्वयं भी नृत्य करते हैं। वे रूद्र शिव एशिया के बड़े भूभाग में प्राचीन काल से ही उपासित हैं। शिव गूढ़ रहस्य हैं। युधिष्ठिर के मन में शिव जिज्ञासा थी। भीष्म से उन्होंने तमाम प्रश्न पूछे थे। वे भीष्म से शिव गुण भी सुनना चाहते थे। भीष्म ने कहा, “शिवगुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। श्रीकृष्ण के अलावा उनका तत्व दूसरा कोई नहीं जानता। फिर अर्जुन से कहा, “रूद्र भक्ति के कारण ही श्रीकृष्ण ने जगत् को व्याप्त किया है।” यहां श्रीकृष्ण के विराट का कारण भी शिव तत्व का बोध है। देवों के देव महादेव नमस्कारों के योग्य हैं।
पौराणिक शिव बड़े आकर्षक हैं। बैल की सवारी और पार्वती से बतरस। ‘विज्ञान भैरवतंत्र’ में शिव और पार्वती के मध्य गहन दार्शनिक संवाद का उल्लेख है। कालिदास ने शिव बरात का मनोरम शब्द चित्र खींचा है। बताया है कि शिव बरात नगर पहुंची। स्त्रियां अपना कामधाम छोड़कर छतों की ओर भागी। एक की जूड़े की माला टूट गई। एक ने दांयी आंख में ही काजल लगाया था, वह बाई आंख का काजल लगाना छोड़ भाग चली। पार्वती शिव जगत् के माता पिता हैं। विवाह के बाद देवों ने शुभकामनाएं दीं।”
हम भारतवासी बहुदेव उपासक हैं। बहुदेव उपासना हमारी प्रकृति है। शिव एशिया के बड़े भाग में प्रचलित देव हैं। वे हजारों बरस से भारत के मन में रमते हैं। एक अकेले ही। एको रूद्र द्वितीयोनास्ति। कुछेक विद्वान रूद्र शिव को आयातित देवता मानते हैं। श्रीराम गोयल ने ‘विश्व की प्राचीन सभ्यताएं‘ (पृष्ठ 416) में शिव उपासना को आर्येतर बताया है। उन्होंने ऋग्वेद के रूद्र को भी परवर्ती शिव से भिन्न बताया है। गोयल आर्यों को भारतीय मूल का नहीं मानते थे। वे देवताओं को भी आयातित मानते थे। लेकिन ऋग्वेद की प्राचीनता से ही ऐसे आरोप निरस्त हो जाते हैं। सिंधु घाटी से प्राप्त मुद्राओं में पशुओं की बहुतायत है। शिव पशुपति हैं ही। शिव उपासना पश्चिम एशिया व मध्य एशिया तक विस्तृत थी भी। प्रख्यात माक्र्सवादी चिन्तक डाॅ0 रामविलास शर्मा ने लिखा है “वास्तव में शैवमत, वैष्णवमत, बौद्धमत इन सबके स्रोत भारत में थे। यहां से इन मतों का प्रसार मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया में हुआ।” शिव उपासना का मूल केन्द्र भारत है। यजुर्वेद प्राचीन है। इसका 16वां अध्याय शिव की ही स्तुति है। यहां शिव कण-कण में व्याप्त परम चेतना हैं। एको रूद्र द्वितीयो नास्ति