डॉ.आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता..!

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डॉ.आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता..!
डॉ.आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता..!
डॉ.सुधाकर कुमार मिश्रा-राजनीतिक विश्लेषक

डॉ.आंबेडकरजी भारतीय राजनीति के महान नेता थे। भारत के स्वतंत्रता के समय आंबेडकर जी सामाजिक परिवर्तन चाहते थे, सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा समाज की दुरावस्था एवं सामाजिक कुरीतियों को देखकर आत्मा से दु:खी थे और उनको बदलने के लिए प्रयत्नशील थे । उनके सामाजिक कार्यक्रमों में तत्कालीन कांग्रेस ने रोड़ा लगाया था। कांग्रेस के सन् 1886 के दुसरे अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्री दादाभाई नौरोजी ,जो भारत के व्यवृद्ध व्यक्ति थे और उदारवादी नेता थे ने कहा था कि कांग्रेस संगठन को अपना ध्यान राजनीतिक विषयों पर देना चाहिए। सन् 1887 के मद्रास अधिवेशन के समय भी कांग्रेस अध्यक्ष श्री बदरुद्दीन तैय्यब जी ने कहा कि कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने आपको सामाजिक समस्याओं से अलग रखें। डॉ आंबेडकर जी ने अपना ध्यान बाल – विवाह , अछूतोद्धार,स्त्री वर्ग की प्रगति, अस्पृश्यता तथा अन्य रूढ़ियों के समाप्त करने का कार्य किया। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि जिन लोगों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सत्ता प्राप्त किए , वे समाज सुधार से कोसों दूर चले गए। आंबेडकर जी का कहना था कि “मैं सामाजिक सुधार को राजनीतिक सुधार की अपेक्षा अधिक मौलिक मानता हूं।” डॉ.आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता..!

वर्तमान में गृह मंत्री श्री अमित शाह जी के बयान को अंबेडकर जी का अपमान क्यों माना जा रहा है? इससे भाजपा की दलित राजनीति कैसे प्रभावित हो सकती है? यदि ईश्वर शोषण से मुक्ति देनेवाला है तो डॉक्टर अंबेडकर जी जाति व्यवस्था में बटे भारतीय समाज के उन करोड़ों लोगों के ईश्वर हैं जिन्होंने सदियों तक सामाजिक, आर्थिक ,राजनीतिक और शैक्षणिक भेदभाव झेला है। ईश्वर वह है जो जीवन की गुणवत्ता ,समानता एवं औषधि प्रदान करता है ।अंबेडकर जी ने दलित वर्गों के लिए अति प्रसंसनीय कार्य किया है ,यही कारण है कि अंबेडकर जी की विचारधारा से जुड़े और दलित राजनीति से जुड़े लोग अमित शाह के इस बयान को अंबेडकर जी के अपमान के रूप में देख रहे हैं। समकालीन में सभी राजनीतिक दलों को अंबेडकर जी को अपनाने की होड़ मची है और राजनीतिक दल अंबेडकर जी के विचारों को क्रियान्वित करने के बजाय उनकी पहचान को इस्तेमाल कर दलित मतदाताओं को अपने राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग कर रहे है।

भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी कही जाती थी, लेकिन बीजेपी ने खासकर मोदी जी के नेतृत्व में अपने वोटरों का प्रसार अन्य पिछड़ा वर्ग(OBCs) और दलित वर्ग तक किया था। भारतीय राजनीति में यह वोटर्स ‘ तैरते हुए ‘ माने जाते हैं, क्योंकि इन मतदाताओं का रुझान बदलता रहता है। बीजेपी की भरपूर कोशिश रहती है कि जातीय पहचान की राजनीति हावी ना हो और बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक पहचान की राजनीति मजबूत हो। बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस(संघ ) मुख्य तौर पर महाराष्ट्र की ऊंची जातियों खासकर ब्राह्मणों का सामाजिक संगठन था और संघ के शुरुआती जुड़ाव में अनुसूचित जातियां इसके तरफ आकर्षित नहीं थे। यह सार्वभौमिक सत्य है कि आरएसएस ने अभी तक जाति आधारित प्रधानता नहीं दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा समरसता पर आधारित है। राजनीति में सफल प्रदर्शन के लिए सभी जातियों की भूमिका होती है । 1974 में बालासाहेब देवरस संघ के सरसंचालक थे । संघ ने अपने रवैया में बदलाव किया ।अंबेडकर जी, पेरियारजी और महात्मा फुले जी जैसे महापुरुषों के नाम को अपनी प्रार्थना में जोड़ा था, इसके अतिरिक्त दलित और आदिवासियों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेने के लिए अनेक कार्यक्रम प्रारंभ किए थे। संघ भी अपने स्तर पर वनवासी कल्याण आश्रम और समरसता इकाई को प्रारंभ किया।

बीजेपी ने जनसंघ की स्थापना के समय से दलितों को पार्टी में सम्मान दिया था। डॉक्टर अंबेडकर जी के चुनावी महासमर के सहयोगी तत्कालीन प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी थे। डॉ आंबेडकर जी के प्रति संघ में शुरुआत से सम्मान और आदर का भाव था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रमुख विशेषता है कि वह विद्वानों को भरपूर सम्मान करता है। वर्तमान में भारतीय राजनीति में डॉक्टर अंबेडकर जी को अपनाने की राजनीतिक प्रतियोगिता चल रही है। कांग्रेस लगातार संविधान ,जातिगत जनगणना और आरक्षण की बात कर रही है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री खड़गे जी हैं, जो दलित वोटर को लुभाने का रासायनिक प्रभाव है। बीजेपी ने आंबेडकर जी के” पंच तीर्थ” की स्थापना किया है।लंदन में आंबेडकर जी का स्मारक बनवाया है ।संविधान दिवस( 26 नवंबर) 2014 के पश्चात बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है। भारतीय राजनीति में आंबेडकर जी को अपनी तरफ आकर्षित करने का यह राजनीतिक प्रयास है।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दलितों की आबादी करीब 16.6 प्रतिशत है, लेकिन दलित संगठनों का मानना है कि भारत में दलितों के वास्तविक आबादी 20% से अधिक है। लोकसभा में 84 सीट्स दलितों के लिए आरक्षित हैं । ऐसे में इतनी प्रतिशत संख्या और 84 सीट्स राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण खेल कारक है ।राजनीतिक विश्लेशको का मानना है कि राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए दलितों को परंपरागत वोटर के तौर पर व्यवहार करना अति आवश्यक है।

डॉ आंबेडकर जी ने जिस समय भारतीय क्षितिज पर आंदोलन का प्रारंभ किया ,उस समय भारतीय समाज में रूढ़िवादिता, परंपरावाद, जातिवाद, छुआछूत ,सामंतवाद, घृणित प्रथाएं, देहलोकगमन के पश्चात स्वर्ग और नरक और भाग्यवाद के अतार्किक,रूढ़िवादी और अवैज्ञानिक नियमों और पाशविक बंधनों में हिंदू समाज बुरी तरह जकड़ा हुआ था। वह कठोर प्राचीन धार्मिक रूढ़िवादी नियमों का परित्याग करना चाहते थे और उनकी प्रबल इच्छा थी कि उनका स्थान सिद्धांतों पर आधारित धर्म द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि धर्म प्रधानत:केवल सिद्धांतों का विषय होना चाहिए उसको नियमों का विषय नहीं बनाया जा सकता है । उनके विचार में “मन और आत्मा का उत्थान लोगों की राजनीतिक प्रसार की एक आवश्यक शर्त है।”

सवाल उठता है कि क्या श्री अमित शाह के बयान से बीजेपी को राजनीतिक हानि हो सकता है ? राजनीतिक विश्लेषकों , डाटा संग्रहक और राजनीतिक व्यवहार के विशेषज्ञों का मानना है कि इससे बीजेपी को राजनीतिक नुकसान के बजाय राजनीतिक फायदा मिलने की संभावना बढ़ गई है। आंबेडकर जी के प्रति श्रद्धा, काम और उपलब्धियां विचार- विमर्श का विषय हो रहा है। वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी के समानांतर कोई राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं है । श्री राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता और अगंभीर व्यक्तित्व ,श्री खड़गे जी का थकान भरी राजनीतिक पारी और अन्य राजनीतिक दलों का आंतरिक अंतर्कलह आंबेडकर जी के विचारधारा और समर्थकों में सेंध लगाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। डॉ.आंबेडकर को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता..!