समाज की सभी समस्याओं का हल- किसान का हल है

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नोवल कोरेाना वायरस ने इंसान की जिंदगी में बड़े बदलाव लाये हैं और आगे भी लायेगा। इस वैश्विक आपदा ने भौतिकवाद और आधुनिकता की अंधी दौड़ में भाग रहे इंसान को रोककर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या जिस विकास की राहत उसने पकड़ी है वह सही है । यही बात खेती किसानी पर भी लागू होती है । इस समय हमें यह सोचना होगा कि हमारे पूर्वजों के बनाये हल-बैल के संबंध को जिस तरह से हरित क्रांति के साथ समाप्त कर खेती में आधुनिकता की राह पकड़ी गयी उससे हमें क्या मिला। क्या इस सबंध को खत्म कर हम अपनी समस्याओं का स्थायी हल निकाल पाए।सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद् दिनेश कुमार उपाध्याय ने शनिवार को यूनीवार्ता से बात करते हुए परंपरागत खेती और हल के महत्व तथा कोरोना काल में एकबार फिर से हल को अपनाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि आदिमानव से सभ्य मनुष्य के रूप में उद्विकास के क्रम में इंसान के हाथ में प्रकृति की ओर से लकड़ी दी गयी और मनुष्य ने इसी लकड़ी से हल बनाया और अपनी समस्याओं का हल निकालने का काम शुरू किया। लकड़ी से बने हल ने समाज का ताना बाना तैयार करने में मुख्य भूमिका निभायी। हल ने गाय को जोड़ा ,गाय ने बैल को जोडा, और इनसे जुड़े पहिये ने विकास का रास्ता खोला। हल ने बढ़ई को और लोहार को जोड़ा और इसी तरह लगभग 17 प्रकार के कार्यों को करने वाले परिवारों को एक समाज के रूपमें जोड़ा । इस तरह हल ने गांव बसाया और समाज बनाया।
हमारे पूर्वजों ने कृषि के इस यंत्र के महत्व को समझते हुए इसे नाम ही दिया हल जिसका अर्थ होता है “ समाधान” अर्थात इसे इंसान की सभी समस्याओं का हल माना गया। धर्म में भी हल को बड़ा महत्व दिया गया। भगवान कृष्ण के बडे भाई बलदाऊ का शस्त्र ही “ हल” था अर्थात हमारी संस्कृति में समाज की भोजन की व्यवस्था करने वाले हल को शस्त्र के रूप में भी मान्यता दी गयी। हल हरीश को साक्षी मानकर विवाह संस्कार किया जाता था क्योंकि गृहस्थ जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हल को करना होता था। हल से उत्पादन कर परिवार और समाज का पालन पोषण करना होता था।पहले तो हल लकड़ी का ही बनता था लेकिन विकास के क्रम में हमने इसमें काफी बदलाव किये। समस्या तब तक नहीं थी लेकिन हरित क्रांति के साथ हल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली और यहीं से समाज का पूरा ताना बाना बिखर गया।किसान और सामाजिक कार्यकर्ता राजा भैया वर्मा ने कहा कि हरित क्रांति के निस्संदेह उत्पादन वृद्धि में बड़ा योगदान दिया लेकिन दीर्घकाल में उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनाये गये उपायों ने मिट्टी की गुणवत्ता और उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला। अब तो देश के कई हिस्सों में उत्पादन में भी स्थिरता आ गयी है। उत्पादन बढाने के तरीकों ने पर्यावरण पर घातक प्रभाव डाला है और नोवल कोरोना वायरस ने इंसान को प्रकृति के अति दोहन से बाज आते हुए दूसरे जैव अजैव के साथ सामंजस्य से रहने का पाठ पठाया है। इसी स्थिति ने परंपरागत उद्योगों को फिर से खड़ा करने और परंपरागत तरीके से की जाने वाली खेती को पुनर्जीवित किये जाने की जरूरत पैदा कर दी है और खेती में हल की प्रासंगिकता की बात फिर उठने लगी है।