अपने गांव की बाग “फुलवारी” में वट वृक्ष का रोपड़ किया । यह वट एक आम के पेड़ की शाखा में कोटर में उगा था । वहां से उखाड़ कर इसे बाग के मुहाने पर अतिरिक्त भूमि पर लगाया गया । वट वृक्ष और उसकी सघन छाया , विशाल लटकती जटाओं और मोटी डालियों के नीचे खेलते बचपन बिताया । बहुत बचपन जो शैशवावस्था की सीमा से शुरू हो रहा था, उस समय वट के नीचे गर्मी-बरसात में चींटों के समुद्र के आतंक में डूबकर जो बचपन आगे बढा़ तो वह चिभ्भी-डंडा, गुल्ली-डंडा, लफिया जो आगे चलकर फुफेरे बडे़ भाई अजय तिवारी के मार्गदर्शन में आइस-पाइस में बदल गया , से होता हुआ नंदन, चंपक, कादम्बिनी, धर्मयुग,नवनीत तथा भारत अखबार के वाचन और अध्ययन करते 11 साल की अवस्था तक चला जब हम जूनियर श्रेणी के छात्र हो 30 किलोमीटर दूर एक कस्बे में पिता जी के साथ जूनियर हाई-स्कूल के छात्र के रूप में पढ़ने चले गये।
आम की बाग जो कभी जंगल में थी और गदरायी नवयुवती की तरह चित्ताकर्षक होती थी , अब बढ़ती आबादी के भारी दबाव और पारिवारिक असावधानी से उजड़ने के कगार में है। उसी में लखनऊ से लाये आम के पौधे लगवाने के लिए बाग आया तो इस वटवृक्ष को एक जीर्ण आम की शाखा-कोटर से शरारतपूर्ण मुस्काराते देखा। जैसे कह रहा हो कि अब मैं इसे जल्दी ही ढक लूंगा। बागवान से कहा कि निकालो तो उसने उसे सावधानी से निकाल लिया । अब उसे नयी जगह पर निर्द्वन्द मुस्काराने को स्थापित कर दिया है। ईश्वर उसकी रक्षा करें। देहातों में वृक्ष भगवान भरोसे ही उगते बढ़ते और हरे भरे रहते हैं। चरागाह सब पट्टे पर चले गये, एक एक इंच जमीन, तालाब तक या तो कृषि के लिए जोते बोये जाते हैं या फिर वहां माकान बन रहे हैं । अतः गावों के पशुपालको के पशु खासकर बकरियां बागों को आहार बना रही हैं । उन्हे कौन रोक सकता है ? कोई नहीं।